(गतांक से आगे...)
इसी समय एक और घटना घटी। सीता जब पालकी पर चलकर आ रही थीं, तो पालकी के पर्दे लगा दिये गये थे।
सभी वानर - भालू सीता को देखने के लिए उत्सुक थे, इसलिए वे पर्दे के पास जाकर उझक - उझककर उनको देखने का प्रयास करने लगे। इसपर सीता के अंगरक्षक राक्षस छड़ी से वानरों को हटाने लगे। इसे देखकर रामचन्द्र को रोष हुआ और वे उन राक्षसों को ऐसे देखने लगे, मानो वे उनको जलाकर भस्म कर देंगे। उन्होंने कहा कि इनको इस प्रकार हटाना मेरा अनादर है। ये वानर - भालू मेरे आत्मीय हैं।
फिर उन्होंने कहा कि विपत्ति काल में, शारीरिक या मानसिक पीड़ा में, युद्ध में, स्वयंवर में, यज्ञ में अथवा विवाह में स्त्री का दिखना दोष की बात नहीं है। यह सीता इस समय विपत्ति में है, मानसिक कष्ट से युक्त है और विशेषतः मेरे पास है, अतः इसका पर्दे के बिना आना कोई गलत बात नहीं है।
व्यसनेषु न कृच्छेषु न युद्धेषु स्वयंवरे।
न क्रतौ नो विवाहे वा दर्शनं दूष्यते स्त्रिया: ।।
सैषा विपद्गता चैव कृच्छ्रेण च समन्विता।
दर्शने नास्ति दोषोऽस्या मत्समीपे विशेषतः।।
(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग-114, श्लोक 28-29)
फिर राम कहते हैं कि जानकी पालकी को छोड़कर पैदल ही मेरे पास आएं और सभी वानर उनके दर्शन करें।
सीता में है, मानसिक कष्ट से युक्त है, मेरे यानी अपने पति के पास है, इसलिए उसका औरों को दिखाई देने में कोई गलत बात नहीं। वे पैदल आएं और सभी वानर भालू उनके दर्शन करें।
क्या यह एक साथ ही नहीं बताता कि राम सीता की पीड़ा को अच्छी तरह समझ रहे हैं। वे यह चाह रहे हैं कि सीता चुपके से उनको न सौंपी जाए, बल्कि सीता साहस से सबके सामने आएं। और साथ ही कि राम के आत्मीय जन वानर-भालू सीता के दर्शन करें। सीता को किसी से छुपने की जरूरत नहीं है।
आगे लिखा है कि सीता जब राम के पास पैदल चलकर आ रही थीं, तो वे लज्जा से अपने अङ्गों में ही सिकुड़ी जा रही थी। विभीषण उनका अनुगमन कर रहे थे। ऐसी अवस्था में वे अपने पतिदेव राम के सम्मुख उपस्थित हुईं।
लज्जया त्ववलीयन्ति स्वेषु गात्रेषु मैथिली ।
विभीषणेनानुगता भर्तारं साभ्यवर्तत ।।
(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग-114, श्लोक - 34)
यानी सीता को स्वयं लोकलाज का अनुभव हो रहा था कि वे इतने समय रावण की अशोक वाटिका में रही हैं, तो लोग क्या सोचेंगे उनके बारे में। राम यह कहकर कि सीता मानसिक कष्ट एवं संताप से युक्त है और मेरे समीप है, अतः वे पालकी छोड़कर पैदल आएं, एक प्रकार से सीता को उस लोकलाज के भय से ही तो निकालना चाहते हैं। गहराई में जाने से ही यह तथ्य समझा जा सकता है।
अब अधिक ध्यान से आगे का प्रसंग समझने की आवश्यकता है। सीता जब पति की आज्ञा स्वीकार करके नहा-धोकर, वस्त्राभूषण से सज्जित होकर, पालकी पर बैठकर आती हैं, तो यहां से राम को खिन्नता उत्पन्न होने लगती है। यह खिन्नता क्यों ? राम यह समझ जाते हैं कि सीता यदि इस रूप में संसार के सम्मुख आयी, तो संसार यही समझेगा कि सीता को रावण के पास कोई कष्ट नहीं था और वह वहां बहुत सुख से रह रही थी। इस विचार का प्रतिकार होना चाहिए। पहला प्रतिकार तो उन्होंने वहीं से प्रारम्भ कर दिया, जब उन्होंने सीता को पैदल चलकर आने के लिए कहा।
यह जो राम के मन में चल रहे मंथन की बात अभी कही गयी कि संसार सीता को इस रूप में देखकर क्या सोचेगा, उसका खुलासा आगे चलकर राम - अग्निदेव संवाद में होता है। पूर्व में ही बताया जा चुका है कि यह वाल्मीकि की विशेष शैली है कि वे कभी-कभी एक सर्ग में जो बात कहते हैं, आगे के सर्गों में उसका विस्तार करते हैं, वैसे ही इस सर्ग में राम की खिन्नता और मंथन को बताते हैं और आगे के सर्ग में उसका स्पष्टीकरण राम-अग्निदेव संवाद में करते हैं।
उसे आगे जानेंगे।
(क्रमशः)
- प्रो रजनीरमण झा
मो नं 9414193564
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