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Tuesday, 29 April 2025

सोनी बने जननायक, संकल्प, संघर्ष और समर्पण का हुआ सम्मान

 

भाजपा नेता राजकुमार सोनी फोकस भारत, जयपुर के कांक्लेव  डायनामिक लीडर ऑफ राजस्थान में  "जननायक" चुने गए हैं। 

जयपुर, 30 अप्रेल। भाजपा के प्रखर वक्ता और दबंग कार्यकर्ता के रूप में पहचान रखने वाले राजकुमार सोनी, श्रीगंगानगर को  40 साल से जनसंघर्ष की आवाज बुलंद करने के लिए  और भाजपा के समर्पित कार्यकर्ता के रूप में पार्टी के अनेक पदों पर शानदार परफॉर्मेंस दिए जाने को लेकर फोकस भारत ने डायनमिक लीडर ऑफ राजस्थान "जननायक" चुना है। उन्होंने इस सम्मान को जमीन से जुड़े भाजपा के प्रत्येक कार्यकर्ता को समर्पित किया है। 

सोमवार को जयपुर में संपन्न हुए डायनामिक लीडर ऑफ राजस्थान "जननायक कांक्लेव 2025" में भाजपा नेता राजकुमार सोनी श्रीगंगानगर को फोकस भारत की एडिटर इन चीफ़ कविता नरूका ने स्मृति चिन्ह और पौधा भेंट कर यह सम्मान भेंट किया। 

इस कॉन्क्लेव में बोलते हुए  सोनी ने  अपने जन संघर्षों,भारतीय जनता पार्टी को जिला में मजबूत करने के लिए किए कार्य,राम जन्मभूमि आंदोलन में सक्रिय भूमिका,श्री गंगानगर क्षेत्र में गंगनहर में आ रहे प्रदूषित जल,युवाओं में बढ़ नशाखोरी,महिला सुरक्षा,युवाओं में शिक्षा के साथ स्किल डेवलपमेंट जैसे अनेक विषयों पर विस्तार से चर्चा की। 

गौरतलब है कि लेखन कला और संस्कृति के प्रति समर्पित सोनी ने साहित्य,  चित्रकारिता और एक कार्टूनिस्ट के रूप में निरंतर अपना योगदान दिया है। उनके आलेख और बेबाक विचार समाचार पत्र पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं।  राजनीति के एक ऐसे दौर में जब नेता लोग कपड़ों की तरह पार्टियां बदलते हैं वही सोनी ने एक सच्चे सिपाही की तरह पार्टी के हर मोर्चे पर डटे रहकर अपनी निष्ठा और प्रतिष्ठा को एक  मिसाल के रूप में प्रस्तुत किया है। भैरोंसिंह शेखावत, वसुंधरा राजे से लेकर भजन लाल शर्मा तक के राजनीतिक सफर में सोनी ने हमेशा पार्टी को मजबूत करने का काम किया है। उनके इस धमाकेदार इंटरव्यू की  पूरे राजस्थान में जबरदस्त चर्चा हो रही है। कॉटनसिटी लाइव की तरफ से  उन्हें इस उपलब्धि के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

Saturday, 12 April 2025

राजस्थानी गीतों को सहेजने का अनूठा प्रयास है 'राजस्थानी गीत गंगा'

-सारंग और कच्छावा के समर्पित प्रयासों से बना गीतों का महत्वपूर्ण संकलन 

शब्दों की आंतरिक लय जब अनायास ही किसी कवि के होंठों पर  थिरकने लगती है तब गीत का जन्म होता है, और जब गीत जन्म लेता है तो मानवीय संवेदना अपने श्रेष्ठतम रूप में अभिव्यक्त होती है. संसार की हर भाषा में गीत रचे और गाए जाते रहे हैं. गीतों को साहित्यिक परंपरा का श्रृंगार कहा जा सकता है जो कंठों से कंठों तक की भावभरी यात्रा करते हैं. इस यात्रा में गीत सामाजिक संवेदनाओं और सांस्कृतिक विरासत को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले जाने का महत्वपूर्ण काम करते हैं. इसीलिए कहा जाता है, गीतों में जीवन संगीत धड़कता है. 

डॉ. दिनेश कुमार जांगिड़ 'सारंग'
 राजस्थानी भाषा और गीत परम्परा की बात करें तो हमारे यहां लोकगीतों का अकूत खजाना भरा पड़ा है. डिंगल हो या पिंगल, या फिर लोक मानस में रचे बसे गीत, हमारी साहित्यिक परंपरा ही छंदबद्ध गीतों की रही है. लोक भजन हों या प्रेम और श्रृंगार के गीत, मांगलिक अवसर के फल़से, बधावे, सुख री घड़ी, ओल्यूं आदि के गीत हों या हरजस, राजस्थान के हर अंचल में गीतों की एक सशक्त परंपरा विद्यमान है. आधुनिक राजस्थानी में भी इस परंपरा का निर्वहन  वाले अनेक गीतकार हुए हैं जिन्होंने  राजस्थानी गीतों में अपनी अलग पहचान बनाई. इन गीतकारों में प्रमुख रूप से भरत व्यास, कन्हैयालाल सेठिया, रेवतदान चारण, गजानन वर्मा, मनुज देपावत, सत्येन जोशी, कल्याण सिंह राजावत, कानदान कल्पित, मोहम्मद सदीक, रघुराज सिंह हाडा, भंवर जी भंवर, शक्तिदान कविया आदि को शामिल किया जा सकता है. इन गीतकारों ने अपने गीतों के माध्यम से राजस्थानी भाषा की मिठास को जन-जन तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण काम किया. 

डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा
देखा जाए तो मातृभाषा का ऋण हर व्यक्ति पर, हर समाज पर होता है. यह मातृभाषा ही है जो मनुष्य को भौतिक जगत से जोड़ती है, उसे अभिव्यक्त होने का सशक्त माध्यम प्रदान करती है. उस मातृभाषा के प्रति आस्था और समर्पण का भाव ही आदमी में आदमी होने की पहचान कराता है. यह भी कटु सत्य है कि अधिकांश व्यक्ति अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर अधिक संवेदनशील नहीं होते क्योंकि उनके लिए रोजी-रोटी से जुड़े अनेक मसले अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं. फिर  बाजारवाद और प्रगतिशीलता के दौर में संवेदना और अहसास जैसे शब्द भी क्षणिक हो चले हैं. ऐसे में यदि कोई भाषा और सांस्कृतिक विरासत को सहजने की दिशा में ठोस प्रयास करे तो उसकी पीठ थपथपाई जानी चाहिए. 

आधुनिक राजस्थानी भाषा के लोकप्रिय गीतों का संकलन कर ऐसा ही एक ठोस प्रयास किया है डॉ. दिनेश कुमार जांगिड़ 'सारंग' और डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा ने. नवचेतना संस्थान, जयपुर की ओर से 'सारंग' और  कच्छावा के संयुक्त संपादन में एक महत्वपूर्ण पुस्तक 'राजस्थानी गीत गंगा' प्रकाशित हुई है. शब्द साधक और बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ.सारंग भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत है तो वहीं सुजानगढ़ के साहित्य मनीषी और विधिवेत्ता डॉ. कच्छावा राजस्थानी साहित्य सृजन में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं.  इन संपादक द्वय ने राजस्थानी गीतों की एक अनूठी और उपयोगी संचयन कल्पना को मूर्त रूप देकर महताऊ काम किया है. 

इस संकलन में राजस्थानी भाषा के 25 प्रमुख गीतकारों के चुनिंदा प्रतिनिधि गीत हैं जिनकी खुशबू प्रदेश में ही नहीं अपितु देश-विदेश में बसे राजस्थानियों के दिलों तक महकती है. संकलन की खास बात यह है कि गीतों के साथ गीतकारों का  संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है. पुस्तक में मारवाड़ी, मेवाड़ी, हाड़ौती, ढूंढ़ाड़ी और शेखावाटी के गीतों का समान रूप से संचयन होना यह दर्शाता है कि संपादक द्वय ने अपने कर्तव्य का बखूबी निर्वहन किया है. एक ऐसे दौर में, जब राजनीति प्रेरित कुछ स्वार्थी लोग 'कुण सी राजस्थानी' का सवाल उठाते हैं तो उसका जवाब इस पुस्तक में संकलित राजस्थान के हर अंचल के गीतों में खोजा जा सकता है. भाषायी एकरूपता की दिशा में भी संपादकों द्वारा सराहनीय काम किया गया है. 

पुस्तक में बॉलीवुड के प्रसिद्ध गीतकार रहे पंडित इंद्र दाधीच और भरत व्यास की जानकारी राजस्थानी पाठकों के लिए संग्रहणीय बन पड़ी है. भरत व्यास का लोकप्रिय संवाद गीत 'थान्नै काजल़ियो बणाल्यूं...' आधुनिक राजस्थानी के प्रणय गीतों में खासा लोकप्रिय रहा है. वहीं कन्हैयालाल सेठिया का 'धरती धोरां री...', मेघराज मुकुल का 'सैनाणी', गजानन वर्मा का 'सुण दिखणादी बादल़ी', रघुराज सिंह हाडा का 'कतना मांडूं गीत', कानदान 'कल्पित' का 'सीखड़ली'", मोहम्मद सदीक भाटी का 'बाबा थारी बकरी बिदाम खावै रे' और कल्याण सिंह राजावत का बागां बिचै बेलड़ी' गीत भी इस संकलन को प्रभावी बनाते हैं. 

पुस्तक में राजस्थानी के अन्य लोकप्रिय गीतकारों मोहन मंडेला, माधव दरक, भंवर जी भंवर, कालूराम प्रजापति, ताऊ शेखावाटी, प्रेम जी प्रेम, इकराम राजस्थानी, दुर्गादानसिंह गौड़,  भागीरथ सिंह भाग्य और मुकुट मणिराज के  बेहद खूबसूरत गीतों को भी संजोया गया है. इनमें से अधिकांश गीत कवि सम्मेलनों, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अक्सर सुने जाते रहे हैं. 

संकलन के हर गीत में व्यक्त भाव का संक्षिप्त हिंदी वर्णन भी गीत के अंत में दिया गया है ताकि पढ़ने वाले को भावार्थ समझने में आसानी रहे. पुस्तक की भूमिका राजस्थानी के समर्थ रचनाकार सत्यदेव संवितेंद्र द्वारा लिखी गई है. पुस्तक की छपाई और साज सज्जा भी आकर्षक बन पड़ी है. 

सार रूप से यह कहा जा सकता है कि लोकप्रिय राजस्थानी गीतों का एक ही संकलन में उपलब्ध होना 'राजस्थानी गीत गंगा' की विशेषता कही जा सकती है.  डॉ. सारंग और डॉ. कच्छावा ने जिस समर्पण भाव और मेहनत के साथ यह संकलन तैयार किया है उससे उम्मीद तो यह भी बंधती है कि राजस्थानी के नए गीतकारों का संकलन भी यथाशीघ्र प्रकाश में आएगा.

- डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

Sunday, 30 March 2025

एक था इंदिरा सर्किल !


 - विकास का पुल लील गया थार का प्रवेश द्वार

- 40 साल पहले हुआ था चौक का नामकरण 

इतिहास लिखने के लिए अलग कलम नहीं होती, उसे तो सिर्फ घटनाएं और तथ्य चाहिए। घटना अच्छी हों या बुरी, इतिहास के पन्नों पर कोई फर्क नहीं पड़ता। सूरतगढ़ स्थित थार के प्रवेश द्वार 'इंदिरा सर्किल' का जमींदोज़ होना भी ऐसा ही एक तथ्य है जो देखते-देखते ही इतिहास बनने जा रहा है।  आने वाली पीढ़ियां बमुश्किल से यकीन कर पाएंगी कि कभी यहां शहर का सबसे व्यस्त चौक हुआ करता था।

सूरतगढ़। शहर की दक्षिणी पूर्वी दिशा में स्थित इंदिरा सर्किल, जिसे थार का प्रवेश द्वार माना जाता था, अब गुजरे जमाने की दास्तां बनने जा रहा है। अपनी आखिरी सांसे गिनता यह सर्किल विकास के पुल तले दफ़न होने की तैयारी में है। हालांकि शहर के इतिहास में यह पहली बार नहीं है। इससे पहले लाइनपार स्थित किसान नेता चौधरी चरण सिंह की स्मृति में बने चौक का भी ऐसा ही हश्र हुआ था। 

'घूमचक्कर' के नाम से प्रसिद्ध 'इंदिरा सर्किल' के इतिहास की बात करें तो लगभग 40 वर्ष पूर्व स्व. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की स्मृति में युवा कांग्रेस के कुछ उत्साही कार्यकर्ताओं ने यहां एक झंडा और फोटो लगाकर इस स्थल को इंदिरा सर्किल का नाम  दिया था। उन दिनों चौतरफा कांग्रेस राज हुआ करता था ऐसे में आपत्ति भी कौन करता ! बस, देखते ही देखते सूरतगढ़ के इतिहास में इंदिरा सर्किल ने अपनी जगह बना ली जहां से बीकानेर और श्रीगंगानगर के लिए सड़कें निकलती थी। ठीक सामने की तरफ जाल वाले बाबा रामदेव का प्राचीन मंदिर स्थित था। उन दिनों आबादी से ठीक बाहर धोरों के बीच स्थित यह सर्किल शहर के लिए प्रवेश द्वार का भी काम करता था। बीकानेर और श्रीगंगानगर से आने वाली बसें यहां विश्राम लिया करती थी जिसके चलते कुछ होटल और रेस्टोरेंट भी यहां खुल गए थे। तथ्य तो यह भी है कि इस चौक के पश्चिम दिशा की सैकड़ों बीघा सरकारी भूमि पर भूमाफियाओं ने कब्जे कर खूब चांदी काटी। अवैध कब्जों के इस खेल में सत्ता और प्रशासन की भागीदारी भी बराबर बनी रही। 

इस चौक के दुर्दिन तो 2014-15 से ही शुरू हो गए थे जब सत्ता और प्रशासन की शह के चलते बांगड़ ग्रुप की कंपनी 'श्री सीमेंट' ने यहां अपना झंडा और 'लोगो' रोप दिया था। कंपनी के इस कृत्य पर विपक्ष और जन विरोध के सुर भी उठे थे लेकिन उनमें वह ताकत नहीं थी जो किसी कॉरपोरेट की मनमानी को रोक सके। उस समय श्री सीमेंट प्रबंधन ने इंदिरा सर्किल के सौंदर्यकरण को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की थी। दिखावटी तौर चौक की रेलिंग रिपेयर की गई और  कुछ पौधे भी लगाए गए  मगर सार-संभाल के अभाव में सब दम तोड़ गये। आलम यह बना कि सर्कल की साज़-सज्जा तो दूर, चौक के चारों तरफ घूमते टूटे हुए हाईवे से उड़ती धूल के गुबार चौतरफा छाने लगे। 

पिछले 7-8 साल से नेशनल हाईवे पर कमल  होटल से स्टेडियम तक फ्लाईऑवर का निर्माण जारी है। 'कानी के ब्याह में सौ कौतुक' जैसी कथा वाले इस ओवरब्रिज ने इंदिरा सर्किल के अस्तित्व को मिट्टी में मिला दिया है। जो थोड़े बहुत अवशेष बचे हुए हैं वह भी बड़ी जल्दी सूरतगढ़ के इतिहास में दफन होने वाले हैं। विकास की कुछ कीमत तो आखिर शहरवासियों को चुकानी ही पड़ेगी । ऐसे में गीतकार नीरज की पंक्तियां याद आती है- 

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से,

लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,

और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे

कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे...! 

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

Thursday, 13 March 2025

बीकानेर थियेटर फेस्टिवल : कला और संस्कृति का कुंभ

 

मुझे लगता है मैं महाकुंभ न सही, कुंभ  स्नान तो कर ही आया हूं। 'बीकानेर थियेटर फेस्टिवल' में भाग लेने की अनुभूति किसी भागवत कथा के श्रवण समान ही सुखदायी रही, मन संवेदना और भावनाओं के सागर में डुबकियां लगता रहा। मेरे जैसे ढोल के लिए तो यह कुंभ स्नान ही हुआ ना ! 


दरअसल, 'बीकानेर थिएटर फेस्टिवल' रंगमंच, साहित्य और कला का समुच्चय भर नहीं है बल्कि यह दुनियाभर की सांस्कृतिक विरासत, नाट्य शास्त्र की परंपराओं और कलाओं को समसामयिक संदर्भों में बांचने का अद्भुत आयोजन है। यह फेस्टिवल पिछले 9 सालों से प्रतिवर्ष आयोजित हो रहा है। इस बार 8 मार्च को शुरू हुए पांच दिवसीय उत्सव में 20 से अधिक नाटकों का मंचन हुआ, नुक्कड़ नाटक खेले गए, नाट्य प्रशिक्षण कार्यशाला और रंग संवाद आयोजित किये गए । इन नाटकों का मंचन बीकानेर के टाउन हॉल, रविंद्र रंगमंच, और टीएन ऑडिटोरियम में हुआ। मेट्रोपोलिटन शहरों में होने वाली नाटक प्रस्तुतियों में अक्सर दर्शकों का अकाल रहता है, वहीं एशिया के सबसे बड़े गांव कहे जाने वाले बीकानेर में सभी हॉल दर्शकों से खचाखच भरे रहे। 


इस फेस्टिवल में देश भर के नाट्य मंडलों ने अपनी शानदार प्रस्तुतियां दी। इन प्रस्तुतियों में लखनऊ ग्रुप के नाटक 'भगवद्ज्जुकीयम',  जोरहाट असम की प्रस्तुति 'द रिलेशन', राष्ट्रीय कला मंदिर श्रीगंगानगर का नाटक 'ये लोग ये चूहे' और मुंबई ग्रुप का 'गोल्डन बाजार' अभिनय और कल की दृष्टि से बेहद शानदार रहे। दिल्ली ग्रुप के नुक्कड़ नाटक भी अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहे। वरिष्ठ रंग कर्मी और साहित्यिकार मधु आचार्य मानते हैं कि नाटक का प्रस्तुतीकरण ऋषि कर्म है। उनकी बात से सहमत हुआ जा सकता है क्योंकि नाटक में साहित्य, संगीत, नृत्य, वेशभूषा, चित्रकला, वास्तु शास्त्र सहित नवरस विद्यमान रहते हैं। इन सब विधाओं का सामूहिक निर्वहन अत्यंत दुष्कर है, इसके लिए पूर्ण समर्पण, निष्ठा और अनुशासन आवश्यक तत्व हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की नाटक में रिटेक जैसा कुछ भी नहीं होता। अच्छा हो या बुरा, जो भी घटित होना है, दर्शकों के सामने होना है। शायद यही कारण है कि रंगमंच को समस्त कलाओं में सर्वोपरि माना जाता है। 

बीकानेर के इस उत्सव में देश के अलग-अलग हिस्सों से आए विद्वजनों और समर्पित कलाकारों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। नए विचार और गहन चिंतन भरे संवाद दिल दिमाग में अब भी गूंज रहे हैं। सच कहूं तो शब्द और कला के कुशल चितरे भायले हरीश बी. शर्मा के स्नेहिल निमंत्रण से यह कुंभ यात्रा अनूठी बन पड़ी है। कला संगम  की इस यात्रा में श्री राजूराम बिजारणिया और श्रीमती आशा शर्मा सहयात्री बने, उन्होंने भी इस उत्सव का भरपूर आनंद लिया। हम सबकी तरफ से बीकानेर थिएटर फेस्टिवल के आयोजकों को अलेखूं बधाइयां और उत्तरोत्तर प्रगति की मंगल कामनाएं। 

थियेटर संग पुस्तक दीर्घा : हरीश बी शर्मा का नवाचार 

बीकानेर थियेटर फेस्टिवल में बिखरे  रंगों के बीच हरीश बी. शर्मा द्वारा किया गया पुस्तकीय नवाचार एक सराहनीय कदम है । गायत्री प्रकाशन और पारायण फाउंडेशन की इस पुस्तक-दीर्घा योजना में लोगों का खासा उत्साह रहा। हंसा गेस्ट हाउस में इस बार दीर्घा के साथ किताबें बैठकर पढ़ने के लिए भी इंतजाम किए गए ताकि पाठक यहां बैठकर भी अपनी पसंद की किताबें पढ़ सकें। इस योजना के तहत देशभर के लेखकों की पुस्तकें समान भाव से रखी जाती है ताकि पाठक को प्रकाशक के बैरियर और मनोपोली का नुकसान नहीं हो। दीर्घा में प्रदर्शित पुस्तकें अगर किसी पाठक को खरीदनी हो तो वो संबंधित लेखक या प्रकाशक से संपर्क कर सकता है। लेखक और पाठक के बीच सेतु के रूप में यह कार्य पूरी तरह से अव्यवसायिक है जिसका एकमात्र उद्देश्य पुस्तकों के प्रति पाठकों में संवेदना जागृत करना है जिससे वे किताब पढ़ने के मार्ग पर पुन: लौट सकें। 

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

Tuesday, 5 November 2024

भाषायी लालित्य लिए मन को छूनेवाली कहानियां


- मनोहर सिंह राठौड़

(पांख्यां लिख्या ओळमा की समीक्षा) राजस्थानी और हिंदी भाषा के वरिष्ठ साहित्यकार मनोहर सिंह जी राठौड़ का कला और संस्कृति से गहरा नाता है। लेखक होने के साथ-साथ वे एक कुशल चित्रकार और प्रतिबद्ध समीक्षक भी हैं। शेखावाटी की ठसक और जोधपुर की मिठास को एक साथ संजोने वाले राठौड़ साहब पिछले कई दिनों से स्वास्थ्य लाभ पर थे। उन्होंने 'पांख्यां लिख्या ओळमा' की कहानियों पर सारगर्भित टिप्पणी की है। लखदाद राठौड़ साहब, आपका आशीर्वाद सिर माथे ! आप मित्र लोग भी उनकी समीक्षा को बांचिए-

कहानीकार - डा. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

पुस्तक - पांख्यां लिख्या ओळमा [राजस्थानी ]


पिछले साल छपा यह कहानी संग्रह नौ कहानियों को 80 पेज में समेटे हुए है। राजस्थानी भाषा की मान्यता के जुझारु सिपाही डा.सारस्वत मूल रूप से कवि हैं लेकिन उन्होंने राजस्थानी भाषा में बहुत सुंदर कहानियां भी लिखी हैं। 

इस संग्रह की टाइटल कहानी '' पांख्यां लिख्या ओळमा '' मानवीय भावना से ओतप्रोत है। खाड़ी देश में कमाने गए व्यक्ति को उस समय की मजबूरी के हिसाब से उसकी पत्नी अनेक बार में रिकार्ड किए गए मनोभावों की कैसेट किसी के साथ भेजती है।वह कस्बे से निकलते ही बस में रह जाती है। लेखक को कैसेट मिलती है। पेंतीस बरस बीत गए। इस बीच कथा नायक की पत्नी की मृत्यु हो जाती है।लेखक द्वारा फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर सूचना भेजने से कथा नायक आकर कैसेट प्राप्त करता है। मृत पत्नी की आवाज पैंतीस बरस बाद कैसेट से सुनकर भावुक हो जाता है।कहानी का अंत सुखांत परिस्थिति उत्पन्न कर मानवीय कोमलतम भावों को बड़ी मार्मिकता से उजागर करता है।


इसी प्रकार पहली कहानी, '' संकै री सींव '' में प्राचीन परंपरा से बंधे छोटे से गांव की मानसिकता का अंकन सुंदर ढंग से किया है।गांव में परिवार नियोजन के सुरक्षा कवच की फैक्ट्री लगने की बात पर बवाल मचता है। गांव की औरतों को फैक्ट्री में काम मिलने व आर्थिक विकास की बात समझाने पर भी सहमति न होना फिर नाटकीय ढंग से महिला सरपंच द्वारा आगे आकर स्वीकृति देना, मजबूत कदम साबित होता है। गांव की मानसिकता, महिला सशक्तिकरण, विकास की दौड़, देश की योजना में सहयोगी बनना आदि कई मुद्दे सामने आते हैं।


' प्रीत रो परचो ' कहानी में आज की प्रमुख समस्या पेपर लीक को बड़े सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया है। इसमें एक नवयुवक और नवयुवती के बीच पनपने वाले प्यार के कोमल तंतुओं को बहुत कोमलता, शालीनता से उजागर किया है।सारी यातनाएं झेलने के पश्चात उनका प्रेम विवाह नवयुवती के साहसिक कदम से आकार लेता है। संग्रह की सभी कहानियों को डा. सारस्वत ने राजस्थानी जन जीवन की गरिमा को बनाए रखते हुए पूरी संजीदगी, सावधानी से प्रस्तुत किया है।आज के कथानकों को बहुत खूबसूरती से आगे बढा कर मन को छूनेवाली कहानियां लिखी हैं।ये सभी कहानियां अपने आस-पास की लगती हैं।पात्रों का शानदार चयन, सटीक संवाद, सुंदर शैली और भाषा का लालित्य मन मोह लेता है। हनुमान गढ, श्री गंगानगर जिलों की भाषा का प्रभाव , कहावतों-मुहावरों के नगीने राजस्थानी भाषा के एक अनूठे तेवर को प्रस्तुत करते हैं। उस क्षेत्र की माटी की खुशबू सर्वत्र फैली हुई हे।


राजस्थान के सभी क्षेत्रों के पाठक इन कहानियों की भाषायी सरलता, शब्दों के चयन के कारण इनके मर्म तक आसानी से पहुंच सकते हैं। किसी भी कृति की पठनीयता उसे पाठकों के आकर्षण का केन्द्र बिंदु बनाती है। यह कथा संग्रह एक बार पढ़ना प्रारंभ करने पर पूरा पढे बिना हाथ से छूट नहीं सकेगी।

Wednesday, 30 October 2024

लोटे से टॉयलेट जैट तक का सफ़र

इस बात पर बेसाख्ता हंसी छूट गई, ख़्यालों में उन दिनों की परतें उघड़ने लगी जब शौचकर्म के लिए इतनी सुविधाएं विकसित नहीं हुई थी। वो पगडंडियों के दिन थे। सच पूछिए, लोटे से टॉयलेट जैट स्प्रे तक आने में हमें लगभग आधी सदी लगी है ! आज उसी यात्रा के कुछ पन्ने पलटते हैं जिसमें मध्यमवर्गीय परिवारों की विकास गाथा के चिन्ह बिखरे पड़े हैं।


पोतड़ियों का जमाना तो याद नहीं, हां, 1977-78 का वक्त रहा होगा। हनुमानगढ़ जंक्शन की लोको कॉलोनी में स्थित घर के बाहर बनी नाली पर बैठने की कुछ धुंधली सी यादें आज भी ज़ेहन में हैं। नाली के दोनों तरफ पैर रखकर बैठना, शर्ट को ऊंचा कर दोनों हाथों से पकड़ना, पास में एक डंडा रखना, मां का पूछना, 'जा लियो के !', जावूं......!! इसी बीच गली में घूमते आवारा सुअरों को देख भाग खड़े होना जैसी टुकड़ा-टुकड़ा स्मृतियां उभरती हैं। आवारा सुअर उन दिनों छोटे बच्चों के लिए जी का जंजाल हुआ करते थे। खास तौर पर नाली पर बैठते बच्चों के साथ तो मानो उनका वैर ही था। हुरड़-हुरड़ करते कब पास आ धमकें, कौन जाने ! पता नहीं सच था या झूठ, मां अक्सर डराया करती थी, आज सूअर ने फलां बच्चे के बटका भर लिया। यह सुनने के बाद बाल मन की कल्पनाओं में डर के साथ उत्सुकता भी जाग उठती थी।


फिर जब कुछ समझ पकड़ी तो नाली पर जाना छूट गया। यादों का अगला पन्ना पलटता हूं जहां मैं बचपन के दोस्त पवन के साथ लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर शौच के लिए जाया करता था। हनुमानगढ़ में आज जहां कलेक्ट्रेट और सिविल लाइंस का गुलज़ार इलाका है, उन दिनों वहां वीरानी पसरी थी। हास-परिहास में यूं कहा जा सकता है, 'आज जहां कलेक्टर बैठते हैं, वहां कभी देश की भावी पीढ़ी लोटा लिए बैठा करती थी !' पगडंडियों के उस जमाने में शौच के लिए हाथ में लोटा या लोहे का डिब्बा उठाए पवन और मैं घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर जाया करते थे। निक्कर के उस जमाने में सुख-दु:ख करते हुए दो छोटे दोस्त बिना किसी झिझक के पास-पास बैठकर ही फारिग हो लेते थे।


उन दिनों रेलवे क्वार्टर्स के शौचालयों में 'पॉट' की व्यवस्था होती थी जहां पानी के लिए पुराना मटका और एक डिब्बा रखा जाता था। लोहे का बना यह पॉट रेलवे का सेनेटरी डिपार्मेंट उपलब्ध करवाता था। हम लोग इसे पाट कहा करते थे। सुबह सवेरे रेलवे की एक महिला सफाईकर्मी, जो अपने मुंह और नाक को दुपट्टे से ढक कर रखती थी, आकर इस पाट में पड़े मल को झाड़ू से लोहे के एक पीपे में भर लेती थी। उसे सिर पर उठाए वह घर-घर पहुंचती और पीपा भरने के बाद दूर कहीं ले जाकर खाली करती थी। 


जीवन के इस मोड़ पर आज मैं मैला ढोने वाली उस जननी तुल्य दलित महिला की बड़ी शिद्दत के साथ चरण वंदना करना चाहता हूं। सोचता हूं, कितना घृणित कार्य करने को विवश थी वो महिलाएं, मानव समाज में ऐसी विद्रूप व्यवस्था का यह इतिहास अत्यंत घिनौना है । ओमप्रकाश वाल्मीकि की 'जूठन' और सूरजपाल चौहान की 'संतप्त' कृतियों में मैला ढोने की प्रथा का जो वर्णन किया गया है, वह पाठकों को झकझोर कर रख देता है। आज जो लोग दलित वर्ग के आरक्षण पर सवाल उठाते हैं, उन्हें पता ही नहीं है कि जीवन के निम्नतर स्तर को झेलने वाले इस वर्ग को कितनी प्रताड़ना मिली है, उन्होंने जो कुछ सहा है उसके मुकाबले आरक्षण तो कुछ भी नहीं है । लोकतंत्र की सराहना इस मायने में अवश्य की जानी चाहिए कि उन दलित लोगों को भी समाज की मुख्य धारा में जोड़ा गया है जो कभी उच्च वर्ग का मैला ढोने का काम करते थे।


दलित चेतना, जन विरोध और लोकतांत्रिक सुधारों के चलते रेलवे ने कुछ समय बाद क्वार्टर्स में पॉट परंपरा को समाप्त कर सेफ्टी टैंक का निर्माण प्रारंभ कर दिया था। शौचालय में सिरेमिक सीट लगाकर उनके कनेक्शन टैंक से जोड़ दिए गए थे। 'हमारे तो सीट लग गई, तुम्हारी क्यों नहीं लगी !' पंचायत वेब सीरीज से कहीं बहुत पहले यह डायलॉग हमारे मोहल्ले में हिट हो गया था। पहली बार उस चमचमाती सीट पर बैठने का अहसास किसी बड़ी उपलब्धि से कम न था।


उपलब्धि तो गांव और ननिहाल के पैतृक घरों में धमाका कुई का बनना भी कहा जा सकता है। जब कभी छुट्टियों में गांव जाना होता तो वहां शौच के लिए खुले में जाना पड़ता था। रेत के टीलों पर कहीं भी ओट देखी, बैठ गए। उन दिनों इंदिरा गांधी नहर के निर्माण का काम जोरों पर था, गांव में नहर की एक छोटी वितरिका बन चुकी थी। इस वितरिका में सप्ताह में तीन दिन पानी आया करता था। शौचादि के लिए लोग उसके आसपास ही जाया करते थे। खेतों में जब पानी लगने लगा तो लोगों ने खुले में जाना कम कर दिया। आर्थिक स्तर सुधरा तो घरों में कुइयों का निर्माण होने लगा। इससे घर की महिलाओं को बहुत सुविधा हो गई। हम जैसे फितरती बच्चों के लिए तो कुई भी मनोरंजन का साधन थी। धड़ाम की एक आवाज सुनने के लिए उसमें भरा हुआ लोटा, डिब्बा, कंकड़, पत्थर, न जानें क्या-क्या डाल देते थे ! 


दिन और मैं दोनों आगे बढ़ रहे थे। हां, विकास की इस यात्रा में अब हम चल नहीं रहे थे, बल्कि दौड़ रहे थे। इसी दौड़ में घरों के शौचालय भी खासा संवरने लगे थे। पानी के लिए ब्राश टोंटी, सिस्टन से लेकर पंखे तक के इंतजाम टॉयलेट में होने लगे। शुरू शुरू में जो सीट तेजाब से साफ होती थी, उसके लिए बाजार में टॉयलेट क्लीनर और ब्रश आ गए। टॉयलेट के लिए अलग से परफ्यूम और ओडोनिल जैसे उत्पाद बिकने लगे। फ्लोरिंग टाइल्स से लेकर वॉल टाइल्स तक में आधुनिकता झलकने लगी। बटन पुश करते ही गंदगी साफ, और भला क्या चाहिए ! इंडियन सीट को वेस्टर्न कमोड में तब्दील होते भी ज्यादा वक्त नहीं लगा। सुविधाजनक होने के कारण यह कमोड बीमार और बुजुर्गों की ही नहीं, बल्कि युवाओं की भी पहली पसंद बन गया। जैट स्प्रे के चलते हाथ का तो काम बचा ही नहीं, अब तो वहां आराम से बैठकर नेटफ्लिक्स पर अक्षय कुमार की मूवी 'टॉयलेट- एक प्रेमकथा' तक देखी जा सकती है। अब तो देहात में भी कमोड का चलन हो गया है।

लोटे से जेट स्प्रे तक की इस विकास गाथा में अल्ट्रा मॉडर्न जमाने ने टॉयलेट का नया नामकरण भी कर दिया है। संडास, कुई, शौचालय, लैट्रीन या टॉयलेट कहना तो गुजरे जमाने की बातें हो गई, अब तो अमेरिकन अंदाज में वॉशरूम कहने भर से ही आधुनिकता की फीलिंग आ जाती है। चमचमाता वॉशरूम, स्टाइलिश कमोड, सेंसिटिव जेट, वॉल माउंटेड सिस्टन और सेंसर यूरिनल्स जैसे शब्द अब घर की शान दर्शाते हैं। 'लोटे से टॉयलेट जैट तक का सफर' सही मायनों में मानवीय विकास की अनूठी कहानी है।

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख


Wednesday, 16 October 2024

खेजड़ी मंदिर की अद्भुत छटा, शरद पूर्णिमा के दिन लाल रोशनी से जगमग है बालाजी का दरबार


 लाल देह लाली लसै, अरि धर लाल लंगूर

वज्र देह दानव दलन जय जय कपि सूर 

शरद पुर्णिमा ! सूरतगढ़ का श्रंगार कहे जाने वाले खेजड़ी दरबार की छटा आज विशेष दर्शनीय है। हो भी क्यों ना, आज शरद पूर्णिमा का खास आयोजन है। मंदिर परिसर में सजाई गई लाल लड़ियों के प्रकाश में ऐसा लगता है जैसे  सीता माता का स्नेह ‘लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल..’ बरस रहा रहा है। सर्वविदित है कि हनुमानजी महाराज को लाल सिंदूर से लगाव है, इसी को ध्यान में रखकर इस बार मंदिर कमेटी द्वारा मंदिर की सजावट में लाल रंग की थीम से सजावट की गई है। इसके लिए समिति की पूरी टीम बधाई की पात्र है। इस बार धौलपुर पत्थरों से सुसज्जित मंदिर को सुनहरी लड़ियों से सजाया गया है। खास बात यह है कि तराशे गए पत्थरों पर सजी इन सुनहरी लड़ियों के प्रकाश की विपरीत दिशा में लाल रंग परावर्तित करने वाली खास लाइटें लगाई गई हैं जिससे सुनहरी रोशनी लाल रंग में बदल गयी है । इस लाइटिंग में मंदिर की शोभा बेहद आकर्षक बन पड़ी है। शरद पूर्णिमा की रात में आसमान में चमकता पूरा चांद है, मौसम भी सुहावना है, ऐसे में शहर भर के श्रृद्धालु आस्था और विश्वास लिए खेजड़ी दरबार में पहुंच रहे हैं। धोरों में बीच स्थित बालाजी के दरबार की यह शोभा अवर्णनीय है।


 गौरतलब है कि बालाजी महाराज की कृपा और मंदिर कमेटी के समर्पित प्रयासों से विगत कुछ ही वर्षों में खेजड़ी मंदिर का कायाकल्प हो गया है। कमेटी अध्यक्ष नरेन्द्र राठी ने अपनी टीम के साथ पूरे परिसर को भव्य रूप देने में कसर नहीं छोड़ी है। मंदिर में आज भव्य रात्रि जागरण भी है, यदि आस्था और मन हो तो आपको खेजड़ी दरबार में आज अवष्य हाजिर लगानी चाहिए। 


Friday, 4 October 2024

सफलता है मेहनत का प्रतिफल

 


राजकीय विद्यालय मकड़ासर में सम्पन्न हुआ 'गर्व अभिनंदन', विद्यार्थियों का हुआ सम्मान

लूनकरनसर, 4 अक्टूबर। कोई भी सफलता मेहनत का ही प्रतिफल है। विद्यार्थियों की नज़र हमेशा लक्ष्य पर रहनी चाहिए। यह बात वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.हरिमोहन सारस्वत ने कही वे शुक्रवार को उपखंड लूनकरनसर के मकड़ासर गांव के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में आयोजित 'गर्व अभिनंदन' कार्यक्रम में बोल रहे थे। कार्यक्रम में विद्यालय के 20 विद्यार्थियों का सम्मान किया गया जो 'अंतर्दृष्टि' परीक्षा में सफल रहे। इस अवसर पर उपस्थित साहित्यकार राजूराम बिजारणियां ने कहा कि लूनकरनसर क्षेत्र के प्रतिभाओं की कमी नहीं है, बशर्ते उन्हें सही दिशा दी जाए। इक्कीस कॉलेज, गोपल्याण से जुड़ी आशा शर्मा ने बताया कि गत दिनों संस्थान द्वारा इस परीक्षा का आयोजन किया गया। राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय मकड़ासर के प्रधानाचार्य नेतराम जाट, श्यामसुंदर शर्मा, मोहिनी चौधरी, कृष्णा ने विद्यार्थियों की उपलब्धि पर ख़ुशी जाहिर करते हुए उन्हें निरन्तर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। वहीं सुदेश बिश्नोई ने तकनीकी शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला। सभी सफल विद्यार्थियों को सर्टिफिकेट देकर सम्मान किया गया। इक्कीस कॉलेज की तरफ से सरस्वती प्रतिमा विद्यालय को भेंट की गई।

सोनी बने जननायक, संकल्प, संघर्ष और समर्पण का हुआ सम्मान

  भाजपा नेता राजकुमार सोनी फोकस भारत, जयपुर के कांक्लेव  डायनामिक लीडर ऑफ राजस्थान में  "जननायक" चुने गए हैं।  जयपुर, 30 अप्रेल। भ...

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