(एकालाप विधा में रजनी दीप की कृति 'खुसरो बाज़ी प्रेम की...खेलें मैं और तुम' के बहाने...)
हमारे लोक साहित्य में प्रेम का ताना-बाना बड़े सरल शब्दों में बुना गया है. बुल्ले शाह ने तो यहां तक कहा है कि 'बुल्लया दिल नूं की समझावणा, ऐत्थों पुटना ते ओत्थे लावणा'. 'प्रेम गली अति सांकरी...' या फिर 'मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई...' के भाव भी उसी रीत का निर्वहन करते जान पड़ते हैं जो युगों-युगों से मानवीय संवेदनाओं में अभिव्यक्त होती रही है. प्रेम वह अनुभूति है जिसे महसूस करने के लिए आपको प्रेम में होना पड़ता है. आप नदी में उतरे बिना तैरना नहीं सीख सकते उसी प्रकार प्रेम में पड़े बिना आप उसे परिभाषित नहीं कर सकते.
दरअसल, प्रेम का विस्तार अनंत और निराकार है जिसे महज स्त्री-पुरुष या भौतिक जगत के दूसरे संबंधों में बांधा ही नहीं जा सकता. समंदर की तरफ भागती नदी हो या थार पर मंडराती बदली, दोनों में जो कशिश है, खिंचाव है वह प्रेम का ही एक अनूठा रूप है. ओशो ने इस विषय की बड़ी सूक्ष्मता से विवेचना की है जहां प्रेम अंततः ध्यान और अध्यात्म का पथगामी बन जाता है.
प्रेम में पाने और खोने की दुनियावी बातें अनेक बार कही चुकी है लेकिन प्रेम में होने को लेकर अभी बहुत कुछ कहा जाना शेष है. रजनी दीप की एकालाप विधा में रची गई कृति 'खुसरो बाज़ी प्रेम की...खेलें मैं और तुम' इसी शेष की भरपाई का प्रयास करती है. प्रेम में होने और उसे ईमानदारी के साथ शब्दों में अभिव्यक्त करने को रजनी दीप का सिर्फ लेखकीय कौशल कहना भर ठीक नहीं होगा. धर्मवीर भारती के शब्दों में कहूं तो उनका यह रचाव पीड़ा के क्षणों में प्रार्थना गुनगुनाने जैसा है. इस कृति का समर्पण भी प्रेम के नाम है जिसने अपने होने को सार्थक किया है. पुस्तक में अपने प्रियतम के इर्द-गिर्द बुने गए एकल संवाद के ताने-बाने इतने सरल और ग्राह्य हैं कि पाठक उनकी संवेदना के साथ बहता चला जाता है. मनोभावों को स्थूल और सूक्ष्म के भेद बिना एक बिंदु के चहुंओर इस ढंग से बांध लेना कि सब कुछ बंधन मुक्त होकर अनावृत्त हो जाए और उसकी सुगंध देर तक आपको महकाती रहे, तो कहना चाहिए कि आप वाकई प्रेम में होने को बांच रहे हैं.
एकालाप विधा साहित्य की अनूठी विधा है जिसमें आप खुद सवाल खड़े कर उनका उत्तर ढूंढते हैं. हर्ष और विषाद के क्षणों में आंतरिक अभिव्यक्ति जब खुद से संवाद स्थापित कर लेती है तो एकालाप का जन्म होता है. प्रेम जैसे गंभीर विषय पर होने वाले एकालाप को हर निश्छल मन महसूस तो करता है लेकिन उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता. रजनी ने अपनी लेखनी से उन्हें गद्य और कहीं कहीं पद्य का आकार देकर 'बकसुए' में बांधने का सराहनीय प्रयास किया है. इनकी बानगी देखिए-
- सूरज की महबूबा समय की बड़ी पाबंद है !
- मैं जैसे ही तुम्हें देखती हूं...पत्थर से जाने कब...पानी बन तेरी और बहने लगती हूं...
- कैसे पढ़ लेते हो तुम मेरा मन ? ...शायद इसलिए कि अब मेरा कुछ मेरा रहा ही नहीं ! ...यह मन भी अब तुम्हारा हो गया है तो यह तुम्हें सब बता देता होगा !
- मन अपने लिए उदास और परेशान होने के तरीके या कारण खोज ही लेता है और...अगर उसे कारण में मिले तो घड़ भी लेता है.
- जीवन में कभी-कभी ऐसे मौके भी आते हैं जब हम मन से इतना कमजोर महसूस करते हैं कि हमें एक ही बात की बार-बार कंफर्मेशन चाहिए होती है.
- जब एक दिन/ सूरज की हांडी में/ मैंने पकाई थी/ मीठी सेवइयां... और चुपचाप/ तुम्हारे सिरहाने रख, सांकल लगा/ आ गई थी वापिस...जुगनू से कभी हंसते /कभी बुझती/मिटा लेती थी/अपने भीतर के अंधेरे को...
- अपनेपन की हद में भेजी गई तुम्हारी एक बिंदी भी मेरे लिए सूरज बन जाती है...पर तुम्हारी बेरुखी में कहे गए ग्रंथ...मेरे कानों तक भी नहीं पहुंचते...
रजनी के रचाव को पढ़ते हुए पंजाबी विरसे का एक लोकगीत स्मृतियों में उभरता है जिसे पंजाब की सुर कोकिला सुरेंद्र कौर ने बड़ी शिद्दत के साथ गाया है-
हर वेल्ले चन्ना मेरा
तेरे वल्ल मुंह ऐं
बुलयां चे नां तेरा
अखियां चे तूं ऐं
जदों हसदी, भुलेखा मैंनू पैंदा वे
हासयां चे तू हसदा
एहना अखियां चे
पांवां कींवे कजला वे
अखियां चे तू वसदा...
प्रियतम को आंखों का काजल बना कर सपने संजोना भले ही नई बात न हो लेकिन उसे अंतस में शीतल शब्दों की नदी के रूप में प्रवाहित करना रजनी दीप की संवेदना और सामर्थ्य को इंगित करता है. यहां काजल सिर्फ काजल भर नहीं रहता बल्कि शून्य में विलीन होने बाद भी उस तुम तक पहुंचने का माध्यम बन जाता है जिसे इस कृति में प्रियतम माना गया है. सही मायने में 'तुम' से 'तुम' तक पहुंचने की तड़फ ही इस एकालाप का सार है जो प्रेम में होने की सही परिभाषा है.
रजनी दीप की एकालाप विधा में रची गई 112 पृष्ठों की इस पुस्तक को बोधी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. पुस्तक का कवर और साज सज्जा भी अपने नाम के अनुरूप आकर्षक है. अपने अनूठे कथ्य और शिल्प के कारण इस कृति में पाठकीय संतुष्टि की भरपूर संभावनाएं विद्यमान है.
-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
94140-90492
Monologue is an amalgamation of reflective ins and outs of one's life... Nicely described...
ReplyDeletehttps://anupsethi.blogspot.com/2018/06/blog-post.html
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