मानस के राजहंस (2)
नियति कभी-कभी कुछ ऐसे काम सौंपती है जिसे करने के लिए जल्दी से कोई हामी नहीं भरता. लेकिन सामान्य से दिखने वाले ये काम इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि इन के न होने से एक बार तो सारी व्यवस्थाएं और सारे काम अटक जाते हैं.
ऐसा ही एक महत्वपूर्ण काम राजेश वाल्मीकि कर रहे हैं. जी हां, राजेश राजकीय चिकित्सालय, सूरतगढ़ में पिछले 15 सालों से पोस्टमार्टम के समय डॉक्टरों के निर्देशानुसार लाशों की चीरा-फाड़ी का काम करते हैं. यदि राजेश नहीं है तो चिकित्सालय में अक्सर पोस्टमार्टम का काम अटक ही जाता है.
ऐसा ही एक महत्वपूर्ण काम राजेश वाल्मीकि कर रहे हैं. जी हां, राजेश राजकीय चिकित्सालय, सूरतगढ़ में पिछले 15 सालों से पोस्टमार्टम के समय डॉक्टरों के निर्देशानुसार लाशों की चीरा-फाड़ी का काम करते हैं. यदि राजेश नहीं है तो चिकित्सालय में अक्सर पोस्टमार्टम का काम अटक ही जाता है.
मोर्चरी में जब भी दुर्घटना या अकाल मृत्यु होने पर लाश पहुंचती है तो स्वाभाविक है परिजनों सहित अन्य लोगों की भी वहां भीड़ एकत्रित हो जाती है. दु:ख और शोक की ऐसी घड़ी में सब अपनी-अपनी संवेदनाएं व्यक्त करते हैं. कैसे हुआ, क्या हुआ, जैसे सवालों के बीच सबके चेहरों पर मौत का सन्नाटा पसरा होता है. लेकिन इन सबके बीच निर्विकार भाव से राजेश को अपना काम करना ही पड़ता है.
चूंकि कानूनन ऐसी मौतों के मामले में पोस्टमार्टम होना जरूरी है, इसलिए विधिवत मेडिकल बोर्ड बनाया जाता है जिसमें वरिष्ठ चिकित्सक शामिल रहते हैं. इन्हीं डॉक्टर्स की देखरेख में लाशों की चीरा-फाड़ी होती है. अक्सर यह काम चिकित्सालय के वरिष्ठ सफाईकर्मियों द्वारा किया जाता है.
चूंकि कानूनन ऐसी मौतों के मामले में पोस्टमार्टम होना जरूरी है, इसलिए विधिवत मेडिकल बोर्ड बनाया जाता है जिसमें वरिष्ठ चिकित्सक शामिल रहते हैं. इन्हीं डॉक्टर्स की देखरेख में लाशों की चीरा-फाड़ी होती है. अक्सर यह काम चिकित्सालय के वरिष्ठ सफाईकर्मियों द्वारा किया जाता है.
राजेश लंबे समय से मोर्चरी में काम कर रहे हैं. वे कहते हैं मेरे मन में भी मृतकों के परिजनों के प्रति शोक संवेदनाएं उमड़ती है लेकिन उसके बावजूद मुझे अपना काम करना होता है. कभी-कभी तो मोर्चरी में 10-12 दिन पुरानी सडांध मारती सड़ी- गली लाशें भी आ जाती है. ऐसे वहां खड़ा रहना भी दूभर हो जाता है. लेकिन काम तो काम है. बहुत बार ऐसा भी होता है कि राजेश चिकित्सालय में नहीं है तो पोस्टमार्टम में देरी होना स्वाभाविक है. चूंकि उस वक्त माहौल ऐसा रहता है कि सबको पोस्टमार्टम की जल्दी लगी रहती है, ऐसे में मृतक के परिजन और अन्य लोग राजेश को देरी के लिए लताड़़ते भी हैं और उससे उलझ भी पड़ते हैं.
अब राजेश तो राजेश है, उसके सीने में भी दिल है. बकौल राजेश आदमी की लाश से चीरा-फाड़ी शुरू करने से पहले उसे भी अपने दिमाग को स्थिर करने के लिए कुछ समय तो चाहिए. आखिर वह भी आदमी है.
राजेश हमारी दुनिया में मानस के राजहंस सरीखे हैं. संकट और शोक की घड़ी में हमें उनकी जरूरत है बस इतनी सी बात समझने की है.सेल्यूट मेरे दोस्त राजेश, लगे रहो कि यह दुनिया सुंदर बनी रहे.
-रूंख
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