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Sunday, 28 September 2025

माता सीता की अग्निपरीक्षा का सच - 4 (वाल्मीकि रामायण के अनुसार)

(गतांक से आगे...)

सीता चलकर राम के पास आयीं। राम के मुखचन्द्र का दर्शन किया और विनयपूर्वक उनके पास खड़ी हो गयीं।

अब यहां से वह कथा प्रारम्भ होती है, जो लोक में प्रचलित है। राम ने सीता को कहा - समराङ्गण में शत्रु को पराजित करके मैंने तुमको उसके चंगुल से छुड़ा लिया। अपने पुरुषार्थ द्वारा जो कुछ किया जा सकता था, वह मैंने किया। अब मेरे अमर्ष का अन्त हो गया। मैंने अपने अपमान का बदला ले लिया। सबने मेरा पराक्रम देख लिया, मैंने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और मैं उसके भार से स्वतन्त्र हो गया।

जब तुम आश्रम में अकेली थी, उस समय राक्षस रावण तुमको हरकर ले गया। यह दोष मेरे ऊपर दैववश प्राप्त हुआ था, जिसका आज मैंने मानवसाध्य पुरुषार्थ से मार्जन कर लिया। हनुमान् ने समुद्र लांघकर लंका का विध्वंस किया, सुग्रीव ने सेना सहित पराक्रम दिखाया, विभीषण दुर्गुणों से भरे हुए भाई रावण को छोड़कर आये, इन सबका परिश्रम आज सफल हो गया।

यहां तक भी सब ठीक ही है। अभी राम ने कोई बात ऐसी नहीं की है कि सीता को कोई चोट पहुंचे। पर अब राम के कथनों में थोड़ी वक्रता आनी प्रारम्भ होती है। पर वाल्मीकि पहले जो कहते हैं, वह अवश्यमेव ध्यातव्य है। वे कहते हैं कि सीता अपने स्वामी राम के हृदय को प्रिय थीं, किन्तु लोकापवाद के भय से राजा राम का हृदय दो भागों में बंट गया था।

पश्यतस्तां तु रामस्य समीपे हृदयप्रियाम्।

जनवादभयाद् राज्ञो बभूव हृदयं द्विधा।।

(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड सर्ग - 115, श्लोक -11)

इस कथन में दो बातें हैं। एक - सीता राम के हृदय की हृदयवल्लभा थीं यानी उनके हृदय को प्रिय थीं। दो - राम को सीता के लिए लोकापवाद का भय था। दोनों में क्या कहीं भी लिखा है कि राम को सीता पर संदेह हो रहा था ? वे सीता के लिए हो सकने वाले लोकापवाद से पीड़ित हो रहे थे। "लोकापवादो दुर्निवार:" यानी लोकापवाद कठिनाई से जाता है। राम इसी आशंका से व्यथित थे। वे यदि सीता पर संदेह नहीं कर रहे थे तो अन्तिम रूप से यही तो माना जाएगा कि वे इस लोकापवाद से सीता को निकालने का प्रयास कर रहे थे।

और यहां से राम ने वह कूटनीतिक प्रयास आरम्भ किया, जो सीता के लोकापवाद को दूर करने का कारण बन सकता था। उन्होंने कहा कि उन्होंने रावण से अपने तिरस्कार का बदला लिया है। मैंने यह युद्ध करने का जो परिश्रम किया है, वह तुम्हारे लिए नहीं किया है, अपितु सदाचार की रक्षा, सब ओर फैले अपवाद और सुविख्यात वंश पर लगे हुए कलंक का परिमार्जन करने के लिए किया है। तुम्हारे चरित्र में संदेह का अवसर उपस्थित है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो। जैसे आंख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती, वैसे ही तुम मुझे अप्रिय जान पड़ती हो।

प्राप्तचारित्रसन्देहा मम प्रतिमुखे स्थिता।

दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकूलासि मे दृढा।।

अतः तुमको जहां जाना हो, वहां चली जाओ। ये दसों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली हुई हैं। अब तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा, जो दूसरे के घर में रही हुई स्त्री को केवल इस लोभ से कि यह मेरे साथ रहकर सौहार्द स्थापित कर चुकी है, मन से भी ग्रहण कर सकेगा।

क: पुमांस्तु कुले जात: स्त्रियं परगृहोषिताम्।

तेजस्वी पुनरादद्यात् सुहृल्लोभेन चेतसा ।।

रावण तुमको गोद में उठाकर ले गया और तुमपर दूषित दृष्टि डाल चुका है, ऐसी दशा में मैं तुमको कैसे ग्रहण कर सकता हूं। अब मुझे तुममें ममता या आसक्ति नहीं है।

तुम भरत या लक्ष्मण के पास सुखपूर्वक रहने का विचार कर सकती हो। तुम शत्रुघ्न , सुग्रीव या विभीषण के पास रह सकती हो। जहां तुमको सुख मिले, वहां मन लगाओ।

रावण तुम जैसी दिव्यसौन्दर्य से युक्त स्त्री को देखकर तुमसे दूर रहने का कष्ट नहीं सह सका होगा।

बड़े ही पीड़ादायक वचन थे राम के। सीता प्रिय वचन सुनने के योग्य थीं, पर चिरकाल से मिले अपने प्रियतम के मुख से ऐसी वाणी सुनकर आंसू बहाने लगीं। उनकी हालत हाथी के सूंड से मसली हुई लता की तरह हो रही थी।

तत: प्रियार्हश्रवणा तदप्रियं प्रियादुपश्रुत्य चिरस्य मानिनी।

मुमोच बाष्पं रुदती तदा भृशं गजेन्द्रहस्ताभिहतेव वल्लरी।।

यही वह हिस्सा है जिसके लिए राम पर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने ऐसा कहकर सीता की अग्निपरीक्षा ली।

यहां विरोधाभास देखिए। राम सीता को पहले ही हनुमान् द्वारा यह संदेश भेज चुके हैं कि उन्होंने सीता के उद्धार के लिए निद्रा त्यागकर समुद्र पर पुल बनाकर यह युद्ध लड़ा और रावण को मारकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। यहां वे कहते हैं कि यह युद्ध उन्होंने अपने कुल के कलंक को धोने के लिए किया है। वाल्मीकि पहले कह चुके हैं कि सीता राम की हृदयवल्लभा थीं और यहां राम कहते हैं कि तुम मुझे प्रिय नहीं जान पड़ती हो। 

और सबसे बड़ी बात कि राम सीता के लिए लोकापवाद से व्यथित हो रहे थे। यदि वे स्वयं व्यथित थे, तो सीता को व्यथित क्यों कर रहे थे ? यदि ध्यान दें तो यही पाएंगे कि राम ने सीता को वही बातें कहीं हैं जो लोकापवाद में कही जा सकती थीं। एक बात और, पहले तो वे सीता को कहते हैं कि तुम कहीं भी जा सकती हो और आगे कहते हैं कि तुम लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सुग्रीव अथवा विभीषण के पास रह सकती हो। राम यदि सीता को दूषित मानते तो प्राणों से भी प्रिय अपने भाइयों अथवा मित्रों में से किसी के पास रहने के लिए क्यों कहते ? इससे लगता नहीं क्या कि राम सीता को कटु वाक्य कह तो रहे हैं, पर उसका वास्तविक उद्देश्य कुछ और है। यही तो कूटनीति है।

तो भी यदि किसी के हृदय में शंका या फांस है, तो उसका निरसन आगे किया जाएगा।

(क्रमशः)

- प्रो रजनीरमण झा 

मो नं 9414193564

माता सीता की अग्निपरीक्षा का सच - 3 (वाल्मीकि रामायण के अनुसार)

(गतांक से आगे...)

इसी समय एक और घटना घटी। सीता जब पालकी पर चलकर आ रही थीं, तो पालकी के पर्दे लगा दिये गये थे।

सभी वानर - भालू सीता को देखने के लिए उत्सुक थे, इसलिए वे पर्दे के पास जाकर उझक - उझककर उनको देखने का प्रयास करने लगे। इसपर सीता के अंगरक्षक राक्षस छड़ी से वानरों को हटाने लगे। इसे देखकर रामचन्द्र को रोष हुआ और वे उन राक्षसों को ऐसे देखने लगे, मानो वे उनको जलाकर भस्म कर देंगे। उन्होंने कहा कि इनको इस प्रकार हटाना मेरा अनादर है। ये वानर - भालू मेरे आत्मीय हैं।

फिर उन्होंने कहा कि विपत्ति काल में, शारीरिक या मानसिक पीड़ा में, युद्ध में, स्वयंवर में, यज्ञ में अथवा विवाह में स्त्री का दिखना दोष की बात नहीं है। यह सीता इस समय विपत्ति में है, मानसिक कष्ट से युक्त है और विशेषतः मेरे पास है, अतः इसका पर्दे के बिना आना कोई गलत बात नहीं है।

व्यसनेषु न कृच्छेषु न युद्धेषु स्वयंवरे।

न क्रतौ नो विवाहे वा दर्शनं दूष्यते स्त्रिया: ।।

सैषा विपद्‌गता चैव कृच्छ्रेण च समन्विता।

दर्शने नास्ति दोषोऽस्या मत्समीपे विशेषतः।।

(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग-114, श्लोक 28-29)

फिर राम कहते हैं कि जानकी पालकी को छोड़कर पैदल ही मेरे पास आएं और सभी वानर उनके दर्शन करें।

सीता में है, मानसिक कष्ट से युक्त है, मेरे यानी अपने पति के पास है, इसलिए उसका औरों को दिखाई देने में कोई गलत बात नहीं। वे पैदल आएं और सभी वानर भालू उनके दर्शन करें।

क्या यह एक साथ ही नहीं बताता कि राम सीता की पीड़ा को अच्छी तरह समझ रहे हैं। वे यह चाह रहे हैं कि सीता चुपके से उनको न सौंपी जाए, बल्कि सीता साहस से सबके सामने आएं। और साथ ही कि राम के आत्मीय जन वानर-भालू सीता के दर्शन करें। सीता को किसी से छुपने की जरूरत नहीं है।

आगे लिखा है कि सीता जब राम के पास पैदल चलकर आ रही थीं, तो वे लज्जा से अपने अङ्गों में ही सिकुड़ी जा रही थी। विभीषण उनका अनुगमन कर रहे थे। ऐसी अवस्था में वे अपने पतिदेव राम के सम्मुख उपस्थित हुईं।

लज्जया त्ववलीयन्ति स्वेषु गात्रेषु मैथिली ।

विभीषणेनानुगता भर्तारं साभ्यवर्तत ।।

(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग-114, श्लोक - 34)

यानी सीता को स्वयं लोकलाज का अनुभव हो रहा था कि वे इतने समय रावण की अशोक वाटिका में रही हैं, तो लोग क्या सोचेंगे उनके बारे में। राम यह कहकर कि सीता मानसिक कष्ट एवं संताप से युक्त है और मेरे समीप है, अतः वे पालकी छोड़कर पैदल आएं, एक प्रकार से सीता को उस लोकलाज के भय से ही तो निकालना चाहते हैं। गहराई में जाने से ही यह तथ्य समझा जा सकता है।

अब अधिक ध्यान से आगे का प्रसंग समझने की आवश्यकता है। सीता जब पति की आज्ञा स्वीकार करके नहा-धोकर, वस्त्राभूषण से सज्जित होकर, पालकी पर बैठकर आती हैं, तो  यहां से राम को खिन्नता उत्पन्न होने लगती है। यह खिन्नता क्यों ? राम यह समझ जाते हैं कि सीता यदि इस रूप में संसार के सम्मुख आयी, तो संसार यही समझेगा कि सीता को रावण के पास कोई कष्ट नहीं था और वह वहां बहुत सुख से रह रही थी। इस विचार का प्रतिकार होना चाहिए। पहला प्रतिकार तो उन्होंने वहीं से प्रारम्भ कर दिया, जब उन्होंने सीता को पैदल चलकर आने के लिए कहा।

यह जो राम के मन में चल रहे मंथन की बात अभी कही गयी कि संसार सीता को इस रूप में देखकर क्या सोचेगा, उसका खुलासा आगे चलकर राम - अग्निदेव संवाद में होता है। पूर्व में ही बताया जा चुका है कि यह वाल्मीकि की विशेष शैली है कि वे कभी-कभी एक सर्ग में जो बात कहते हैं, आगे के सर्गों में उसका विस्तार करते हैं, वैसे ही इस सर्ग में राम की खिन्नता और मंथन को बताते हैं और आगे के सर्ग में उसका स्पष्टीकरण राम-अग्निदेव संवाद में करते हैं। 

उसे आगे जानेंगे।

(क्रमशः)

- प्रो रजनीरमण झा 

मो नं 9414193564

Tuesday, 16 September 2025

माता सीता की अग्निपरीक्षा का सच - 2 (वाल्मीकि रामायण के अनुसार)

(गतांक से आगे)

आगे हनुमान् और सीता के बीच बड़ा प्रिय और वात्सल्य से भरा संवाद होता है। फिर हनुमान् कहते हैं कि वे सीता को क्लेश पहुंचानेवाली राक्षसियों को मार डालना चाहते पर सीता उनको कहती हैं कि ये तो अपने स्वामी रावण की आज्ञा के वशीभूत होकर मुझे क्लेश देती थीं, अतः इनका कोई दोष नहीं है। अतः इनको मारना उचित नहीं होगा। मेरे लिए दैव का विधान ही ऐसा था। 

फिर वे कहती हैं - मैं अपने भक्तवत्सल स्वामी (राम) के दर्शन करना चाहती हूं।

साब्रवीद् द्रष्टुमिच्छामि भर्तारं भक्तवत्सलम्।।

(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग -113, श्लोक - 49)

हनुमान् बोले कि जैसे शची इन्द्र को देखती है, वैसे ही आप आज चन्द्रमा के समान मुखवाले रामचन्द्र को देखेंगी, जिनके मित्र विद्यमान हैं और शत्रु मारे जा चुके हैं। और वे रामचन्द्र के पास लौट आये। 

उन्होंने राम को बताया कि सीता जी मुझे आत्मीय जन मानती हैं और आंसू भरे नेत्र वाली सीता ने मुझे कहा कि मैं अपने स्वामी के दर्शन करना चाहती हैं। हनुमान् के ऐसा कहने से रामचन्द्र ध्यानस्थ हो गये। उनकी आंखें डबडबा आयीं। वे लम्बी सांस खींचकर भूमि की ओर देखते हुए मेघरंग के विभीषण को बोले।

एवमुक्तो हनुमता रामो धर्मवृतां वर: ।

आगच्छत् सहसा ध्यानमीषद्बाष्पपरिप्लुत: ।।

स दीर्घमभिनि:श्वस्य जगतीमवलोकयन्।

उवाच मेघसंकाशं विभीषणमुपस्थितम्।।

(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग - 114, श्लोक 5-6)

राम ने कहा कि तुम सीता को सिर से स्नान कराकर दिव्य अंगराग और दिव्य आभूषणों से विभूषित कर शीघ्र मेरे पास ले आओ।

यहां एक बार पुनः स्पष्ट होता है कि राम सीता के वचन से करुणार्द्र होकर सीता के प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्त करते हैं।

इसपर विभीषण शीघ्रता से सीता के पास गये और उनको राम का संदेश सुनाया। उनके ऐसा कहने पर सीता ने विभीषण को कहा कि मैं बिना स्नान किये ही पतिदेव के दर्शन करना चाहती हूं।

एवमुक्ता तु वैदेही प्रत्युवाच विभीषणम्।

अस्नात्वा द्रष्टुमिच्छामि भर्तारं राक्षसेश्वर।।

(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग -114, श्लोक -11)

विभीषण कहते हैं कि राम की ही आज्ञा है कि सीता नहा - धोकर दिव्य अङ्गराग और दिव्य आभूषणों से युक्त होकर आएं और आपको ऐसा करना चाहिए।

तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच विभीषण: ।

यथाऽऽह रामो भर्ता ते तत् तथा कर्तुमर्हसि।।

(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग- 114, श्लोक -12)

तब सीता ने "बहुत अच्छा" कहा। सिर से स्नान किया और बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण पहनकर वे चलने के लिए तैयार हुईं।

यहां एक प्रश्न उठता है कि राम को सीता पर संदेह होता तो वे सीता को स्नान करके और वस्त्राभूषण से सजकर आने के लिए क्यों कहते । वे तो किसी रूप में सीता पर आरोप लगा सकते थे। यह कामना करना कि मेरी पत्नी स्वच्छ और सुन्दर लगे, विभीषण के माध्यम से इसका आग्रह प्रकट होना, यह अपने आप ही यह बताता है कि राम सीता पर संदेह नहीं करते थे, अपितु उनसे उसी प्रकार प्रेम करते थे, जैसे अन्य साधारण पुरुष करते हैं, जो अपनी पत्नी को स्वच्छ और वस्त्राभूषण से सज्जित देखकर प्रसन्न होते हैं।

यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि वे पहले सीता को कह चुके हैं कि लङ्का का ऐश्वर्य अब विभीषण के अधीन है, इसे तुम अपना घर समझो। इसलिए वे बिना किसी हिचक के कहते हैं कि सीता नहा-धोकर और वस्त्राभूषण से सज्जित होकर आएं।

सीता जब राम को मिलने चलीं तो उनके लिए एक पालकी मंगायी गयी। उसको निशाचर घेरे हुए थे। सीता उस पालकी में बैठकर राम को मिलने चलीं। विभीषण ने रामचन्द्र को कहा कि सीता आ गयी हैं। सीता राक्षसगृह में निवास करके आयी हैं, इससे राम को एक साथ ही रोष, हर्ष और दैन्य प्राप्त हुआ।

तामागतामुपश्रुत्य रक्षोगृहचिरोषिताम् ।

रोषं हर्षं च दैन्यं च राघव: प्राप शत्रुहा।।

(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग -114, श्लोक -17)

फिर क्या हुआ, इसे आगे देखेंगे।

(क्रमशः)

- प्रो रजनीरमण झा 

मो नं 9414193564

Friday, 12 September 2025

माता सीता की अग्निपरीक्षा का सच -1 (वाल्मीकि रामायण के अनुसार)


प्रोफेसर रजनीरमण झा हिंदी और संस्कृत साहित्य के उद्भट विद्वान हैं। वैदिक साहित्य का विश्लेषण और उस पर सारगर्भित टीकाएं उनके अध्ययन -लेखन की मूल वृत्ति है । घुमक्कड़ी स्वभाव के लेखक प्रो. झा के पास अपनी एक विशिष्ट लेखन शैली है जो  उन्हें अपने समकालीन रचनाकारों से अलग मुकाम देती है। प्रस्तुत है पाठकों के लिए उनका एक विश्लेषणात्मक क्रमिक आलेख-

प्रो. रजनीरमण झा
माता सीता की अग्निपरीक्षा की कथा आजतक भारतीय जनमानस को मथ रही है। समाज के आधे वर्ग यानी महिलाओं के हृदय को यह कचोटता है कि सीता की अग्निपरीक्षा क्यों हुई । यह प्रश्न इसलिए भी उठता है कि भगवान् राम के प्रति पूर्ण समर्पण के बाद भी उनको ही परीक्षा देनी पड़ी।

हमें अग्निपरीक्षा का सच जानना चाहिए। वह भी वाल्मीकि रामायण की कथा के अनुसार। वह इसलिए क्योंकि राम और सीता के बारे में वह सबसे प्रामाणिक ग्रन्थ है। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने इसको आख्यान कहा है - *एवमेतत् पुरावृत्तमाख्यानं भद्रमस्तु व:।* आख्यान अर्थात् वह कहानी जिसका एक चरित्र लेखक भी हो, अर्थात् जो कथा उसके सामने या उसके कालखण्ड में ही घटी हो। इसलिए वाल्मीकि रामायण में जो कुछ लिखा गया है, वह सबसे अधिक विश्वसनीय है।

तो अब हम उसीके अनुसार माता सीता की अग्निपरीक्षा को समझने का प्रयास करते हैं।

वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड में अग्निपरीक्षा की कथा कही गयी है। राम-रावण के युद्ध में रावण मारा जा चुका। विभीषण को लङ्का का राजा बनाया गया। तब राम ने हनुमान् को कहा कि तुम विभीषण की आज्ञा लेकर लङ्का में प्रवेश करो और वैदेही के पास जाकर उनका कुशल पूछो। साथ ही उनको सुग्रीव और लक्ष्मण सहित मेरा कुशल बताओ। यह भी बता देना कि रावण युद्ध में मारा गया। फिर उनकी कुशलता का समाचार लेकर लौट आना।

यह वाल्मीकि की विशेष शैली है कि कुछ बातें वे एक सर्ग में करते हैं और आगे के सर्गों में उसका विस्तार करते हैं। वही आगे भी देखने को मिलता है।

हनुमान् ने विभीषण से आज्ञा मांगी। लङ्का में प्रवेश किया। अशोक वाटिका में पहुंचे, जहां सीता थीं। वे स्नान नहीं करने के कारण कुछ मलिन दिखती थीं। आनन्दशून्य होकर वृक्ष के नीचे राक्षसियों से घिरी बैठी थीं। 

हनुमान् ने उनको प्रणाम किया और विनीतभाव से खड़े हो गये। उनको देखकर देवी सीता प्रसन्न हुईं पर कुछ बोल नहीं सकीं। तब हनुमान् ने रामचन्द्रजी द्वारा कहे गये संदेश को उनको कहना प्रारम्भ किया -

वैदेहि ! रामचन्द्र लक्ष्मण और सुग्रीव के साथ सकुशल हैं। उन्होंने विभीषण, लक्ष्मण और वानरों की सहायता से रावण को युद्ध में मार डाला है। मैं आपको यह प्रिय संवाद सुनाकर प्रसन्न देखना चाहता हूं। आपके पातिव्रत्य धर्म के प्रभाव से ही युद्ध में राम ने यह महान् विजय प्राप्त की है। अब आप चिन्ता छोड़कर स्वस्थ हो जाएं। रावण मारा गया और लङ्का भगवान् श्रीराम के अधीन हो गयी।

*प्रियमाख्याहि ते देवि भूयश्च त्वां सभाजये ।*

*तव प्रभावाद् धर्मज्ञे महान् रामेण संयुगे ।।*

*लब्धोऽयं विजय: सीते स्वस्था भव गतज्वरा ।*

*रावणश्च हत: शत्रुर्लङ्का चैव वशीकृता ।।*

(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग 113, श्लोक 9-10) 

आगे हनुमान् एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं -

श्रीराम ने आगे आपको यह संदेश दिया है कि मैंने तुम्हारे (सीता के) उद्धार के लिए जो प्रतिज्ञा की थी, उसके लिए निद्रा त्यागकर अथक प्रयत्न किया और समुद्र में पुल बनाकर उस प्रतिज्ञा को पूरा किया।

*मया ह्यलब्धनिद्रेण धृतेन तव निर्जये ।*

*प्रतिज्ञैषा विनिस्तीर्णा बद्ध्वा सेतुं महोदधौ ।।*

(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग - 113, श्लोक - 11)

आगे हनुमान् श्रीराम का संदेश सीता को कहते हैं - अब तुम रावण के घर में स्वयं को समझकर भयभीत मत होना। लङ्का का सारा ऐश्वर्य विभीषण के अधीन है। तुम अपने घर में हो। ऐसा जानकर निश्चिन्त होकर धैर्य धारण करो। वे विभीषण भी हर्ष से भर आपके दर्शन के लिए उत्सुक होकर आ रहे हैं।

*सम्भ्रमश्च न कर्तव्यो वर्तन्त्या रावणालये।*

*विभीषणविधेयं हि लङ्कैश्वर्यमिदं कृतम् ।।*

*तदाश्वसिहि विस्रब्धं स्वगृहे परिवर्तसे।*

*अयं चाभ्येति संहृष्टस्त्वद्दर्शनोत्सुक: ।।*

(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग -113, श्लोक 12-13)

इन पांच श्लोकों पर गौर किया जाए। पहले तो राम सीता को आश्वस्त करते हैं कि रावण मारा गया। फिर वे इसका बड़ा श्रेय सीता को देते हैं कि रावण वध सीता के पातिव्रत्य के कारण ही संभव हुआ। फिर कहते हैं कि राम ने रावण की कैद से सीता के उद्धार के लिए प्रतिज्ञा की थी और अपनी निद्रा का त्याग करके समुद्र में पुल बनाकर , रावण का वध करके उस प्रतिज्ञा को पूरा किया। फिर आगे सीता को कहते हैं कि तुमको अब डरने की आवश्यकता नहीं, तुम अपने घर में हो और विभीषण यानी लङ्का का वर्तमान राजा स्वयं तुमको देखने आ रहा है।

कितनी चिन्ता है राम को सीता की कि उनका भय तुरन्त प्रभाव से दूर हो जाय। साथ ही यह भी कि यह युद्ध उन्होंने सीता के उद्धार के लिए लड़ा था। और यह भी कि इस युद्ध में राम की विजय का बड़ा कारण सीता का पातिव्रत्य है। यानी राम को सीता के पातिव्रत्य पर पूर्ण विश्वास था।

जो यह कहते हैं कि राम ने सीता को कहा था कि उन्होंने यह युद्ध अपने कुल की प्रतिष्ठा के लिए लड़ा था और सीता पर उनको संदेह था, वे इन श्लोकों से अपरिचित हैं।

इसे पढ़ने और समझने के बाद उनको राम और सीता का आपसी अथाह प्रेम और अग्निपरीक्षा की कूटनीति समझने की आधारभूमि मिलेगी।

फिर क्या हुआ इसे आगे देखेंगे।

(क्रमशः)

- प्रो रजनीरमण झा 

मो नं 9414193564

Monday, 8 September 2025

संगीतज्ञ जमनालाल सूडिया एवं गजल सम्राट जगजीतसिंह सम्मान-2025 का भव्य आयोजन


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संगीत कला संस्थान की ओर से कला, साहित्य और संगीत से जुड़ी 15 हस्तियां हुई सम्मानित

-स्थानीय कलाकारों सहित शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियों ने बांधा समां

 सूरतगढ़, 08 सितम्बर। संगीत कला संस्थान, सूरतगढ़ और काव्याज बैंड, जयपुर के संयुक्त तत्वावधान में रविवार को कला और संगीत के क्षेत्र में प्रतिष्ठित ‘‘संगीतज्ञ जमनालाल सूडिया एवं जगजीतसिंह सम्मान-2025’’ का भव्य आयोजन हुआ। हर्ष काॅन्वेंट स्कूल के सभागार में आयोजित इस राज्य स्तरीय कार्यक्रम में  कला, संगीत और साहित्य के क्षेत्र की 15 हस्तियों का सम्मान किया गया। इस अवसर पर जयपुर, श्रीगंगानगर और चूरू से पधारे संगीत महारथियों ने शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियों से कार्यक्रम में समां बांध दिया।


शहर के प्रतिष्ठित और गणमान्य नागरिकों की उपस्थित में आयोजित इस कार्यक्रम में पूर्व पालिकाध्यक्ष आरती शर्मा मुख्य अतिथि तथा एडवोकेट भागीरथ कड़वासरा, जिला लोकपाल अनिल धानुका, श्रीमती आशा शर्मा, बनवारीलाल छिम्पा विषिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित रहे। दीप प्रज्ज्वलन के साथ प्रारम्भ हुए इस सम्मान समारोह में जयपुर के डाॅ, हनुमान सहाय, डाॅ. गरिमा कुमावत, शेर मोहम्मद, गोपालसिंह खिची, मधु नायक व रामानंद, श्रीगंगानगर के डाॅ. राजकुमार शर्मा, डाॅ. अंजू बोरड़, पन्नालाल कत्थक, जगदीश प्रसाद नायक, अनुराग कत्थक, सूरतगढ़ के सुशील जेटली व डाॅ, हरिमोहन सारस्वत तथा पल्लू से रजिराम पंवार और संगीता को अभिनन्दनपत्र और शाॅल ओढ़ाकर सम्मानित किया गया। 


कार्यक्रम में काव्याज बैंड, जयपुर के संस्थापक कैलाश सूडिया ने गिटार पर शानदार प्रस्तुति देकर सबका मन मोह लिया। इसके अलावा डाॅ. आर्यविंद बेनिवाल, डाॅ. जगजीत सिंह, अनुराग कत्थक, डाॅ. राजकुमार शर्मा और चंचल शर्मा की प्रस्तुतियों को भरपूर सराहना मिली। संस्थान के विद्यार्थियों की प्रस्तुती भी सराहनीय रही। इस अवसर पर पन्नालाल कत्थक ने संगीतज्ञ जमनालाल सूडिया के व्यक्तित्व और संगीत साधना पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम में संगीत कला संस्थान के संस्थापक ईश्वरलाल सूडिया ने उपस्थितजनों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि संगीत साधना उन्हें विरासत में मिली है जिसे भावी पीढी को निष्ठा के साथ सौंपना ही उनके जीवन का लक्ष्य है। मुख्य अतिथि आरती शर्मा ने सम्मान समारोह के आयोजन को शहर के लिए प्रतिष्ठासूचक बताते हुए संगीत कला संस्थान के प्रयासों की सराहना की। 


इस अवसर पर भाजपा महिला मोर्चा की पूर्व जिलाध्यक्ष रजनी मोदी, एडवोकेट रामप्रताप तिवाड़ी, एडवोकेट शिशपाल सारस्वत, पिताम्बरदत्त शर्मा,  देवेन्द्र आर्य,  सहित बड़ी संख्या में गणमान्य नागरिक उपस्थित थे। कार्यक्रम का प्रभावी संचालन मधु नायक, टीवी एंकर जयपुर व यशपाल शर्मा, सूरतगढ़ ने किया। संस्था के एडवोकेट ओमप्रकाश पारीक, एडवोकेट आनंद शर्मा,  खुशालसिंह और घनश्याम शर्मा ने आयोजन को सफल बनाने में विशेष भूमिका निभाई।

Sunday, 7 September 2025

धपाऊ गाळ काडो, पण प्रेम अर हरख री !


(हेत री हथाई)

राजी राखै रामजी ! ‘हेत री हथाई’ में आज आपां बात करस्यां गाळां री....!, हैं........! हैं क्यांरी, जे ताबै लागसी तो काड’र ई देखस्यां ! आ के जची ? भई, जद आखै देस में अबार सड़क सूं संसद तंई, खबरिया चैनल्स अर सोसियल मीडिया पर लोग गाळो-गाळ हो रैया है, ओछी राजनीति रै इण कोझियै बगत में देस रै परधान नै मा री गाळ काड रैया है तो पछै बात तो करणी ई पड़सी, नीं पछै हथाई में सार ई के ! 


कांई होवै ‘गाळ’ अर क्यूं लागै है दोरी ? साची बूझो तो गाळ लोक चेतना रो अेक महताऊ तत है, देस दुनिया री हर भासा में गाळ लाधै, घर सूं गवाड़, खेत सूं खळा, बजार सूं मंडी, चौफेर तका लेवो, गाळां रा अणूता भंडार भर या है। गाळ कैबतां में लाधै, ओखाणां में लाधै, बातां में लाधै, हथाई में लाधै, गाळ बिना दुनिया रो कोई सबदकोस कोई, बोली, कोई भासा पूरी नीं होवै। जद आपणै लोक में गाळ है तो पछै इण बाबत बात करतां क्यारो संको ! क्यां री रीस !! गाळां रो तो अेक अनूठो सगपण है मिनख रै ब्यौहार सूं। हंकारणो चाहीजै, गाळां आपणी संस्कृति रो अेक महताऊ पख है जिण पर भोत कम बात होवै, पण आज आपां करस्यां। 


गाळ रा दो रंग है, अेक अंतस में भरीजी रीस सूं निपजै अर दूजी हांसी मजाक, छेड़छाड़ सूं जलमै। आपणै लोक में दोनूं रंगां में रंगीजी धपाऊ गाळां है जिकी मूंडै आवताई आपरा रंग दिखा देवै। पैलड़ै रंग में बै गाळां है जिकी राड़ करावै, गदीड़ घलावै, सिर फुड़ावै, जिकी मिनख मरावै, घमसाण करा देवै। दूजोड़ी बै है, जिकी लोकगीतां में गाइजै, जिण सूं सग्गा परसंग्यां रिझाइजै, हंसा-हसां’र बक्खी दुखाइजै, जिकी अपणायत अर हेत में बधेपो करै। है दोनूं गाळ ई, पण अेक मरावै, दूजी हरखावै।   


दुनिया भांत-भंतीली है तो बठै गाळयां ई न्यारी-न्यारी ! दुनिया री हर भासा अर बोली में गाळां रो ठरको अलायदो। आपां मा बैन री गाळ नै मोटी मानां, तो दागिस्तान में सैं सूं मोटी गाळ है, ‘जा थारा टाबर मा बोली भूल जावै !’ अंग्रेजी में तो ‘गैट लोस्ट’/गो टू हैल/फक ऑफ/शिट/बुलशिट आद गाळां मूंडै में आवता ई जूत बाज जावै। आपणी भासा में कहीजै, रांड सूं बत्ती गाळ कोनी, बा काड्यां पछै लारै फेर बचै ई के....। रांगड़ नै तो रैकारै री ई गाळ घणी, घमसाण मचा देवै बो। 


सिर फुड़ावणी आं गाळां री बात करां तो बाळपणै में टाबर दूजी सैंग बातां साथै गाळ रा संस्कार ई सीखै। घर, गळी, गवाड़ में लोगां नै गाळ काडते देख उण रै कौतक जागै अर बो ई बां सबदां नै बरतणै री खेचळ करै, मतलब तो कद जाणै बो ! आ न्यारी बात, कै इण गाळ अभ्यास रा सबद जे कदेई मा का बापू रै कानां में पड़ जावै तो गदीड़ घलतां देर ई नीं लागै। कुटाई रो ओ अणचाइजतो परसाद मिल्यां ई टाबर नै ठाह पड़ै, कै ओ सबद भोत माड़ो है, बेटै कुटा दियो, पछै कीं सावचेती राखे बो..।


चेतो करो दिखाण, बाळपणै में सैं सूं चावी गाळ ही, ‘साळा कुत्ता !’ अब कोई बूझै, ‘साळा तो सांपां नै ई प्यारा होवै’ पछै उण नै गाळ में क्यूं बरतीजै ? थे कैय सको, घर में ‘साळा, भींत में आळा’ इण रिस्तै री सावळ ओळखाण करावै, सो कोई हरज कोनी ! पण म्हूं बूझूं, बापड़ो कुतियो, झोळी-बायरो जीव, उण कांई बिगाड़्यो है आपरो, क्यूं डंडीज्यो बो...? कुतियै री ठौड़ जे इण गाळ में मिनकी ले लेवता तो ई बात ओपती, कै बा छागटी मौको लागतांई चोरी सूं दूध मळाई चट कर जावै। पण नंई, आपां तो ‘खावै सूर कुटीजै पाडा’ री परम्परा रा हां, आपां नै कुण रोकै ! बाळपणै में इसी घणी छोटी-मोटी गाळां सुणता-बरतता आपां आगै बधां। गाळ री कुबाण बातां में आप मतई कद आय जावै, ठाह ई नीं पड़ै। म्हानै चेतै आवै, इस्कूल रै दिनां इण कुबाण नै छुडावण सारू म्है भायला ‘‘गाळी मुक्का’’ खेल्या करता। नियम ओ हो कै बंतळ करती बेळा जे मूंडै सूं कोई गाळ निसरै तो भायला दे गदीड़ पर गदीड़...। कूट खावणै रै डर सूं बोलती बेळा सावचेत रैवणो पड़तो। अेक सरदार भायलो बलजीत, जिण नै आ कुबाण कीं जादा ई पड़गी, लाई भोत कुटीजतो। डूक पड़ते ही मूंडै सूं आप मतैई गाळ निसरती, 'ओ भैण....!' अर भळै डुक त्यार !


गाळ रै दूजै रंगां री बात करां तो बठै हरख अर आनंद निपजै। कहीजै, ‘गावतां रा सीठणा अर लड़तां री गाळां’। ब्याव-एढै रै मौकै सग्गै-परसंग्यां नै गाळ गावण री जूनी परम्परा है आपणै। लोक में अेक बात लाधै, जद स्वयंवर रै पछै भगवान राम, सीता माता नै गाजै-बाजै साथै ल्यावण पूग्या तो बठै सीताजी रै पी’र पख सूं बान्नै झीणी-झीणी गाळां गाइजी, अर हरख मनाइज्यो। गाळां सूं हरखीजणै री आ परम्परा अजेस ई लगोलग चाल रैयी है। आओ, आं गाळां रा रंग देखां, जिकां नै सुण-सुण थाळी जीमता जवांई भाई, सग्गा परसंगी रूसणै री ठौड़ पाट-पाट हांसै अर हरख मनावै। ल्यो अेक राजस्थानी बानगी बांचो दिखाण- 


जवांई रै भाया सारू-


मांज्या धोया थाळ परूस दिया भात जी/आओ आओ फलाणारामजी, 

थे भाणै घालो हाथ जी

बाप थारो साटियो, मां बिणजारी जी/भुवा थारी भगतण मोडियां रै लारी जी....

चारूं भाई चोरटा, भैन उदाळ जी/काकी थारी कुतड़ी मुत्तै चूल्है मांय जी...

मांज्या धोया थाळ परूस दिया भात जी...


सग्गा नै गाइजै-


जीम्या जाय भई जीम्या जाय/मूंछ्यां चावळ लियां जाय/म्हारा चावळ म्हानै देवो/मूंछ्या आगै ढेहरा देवो/ 

जीम्या जाय भई जीम्या जाय/ढुंगां गादी लियां जाय/म्हारी गादी म्हानै देवो/ढूंगा हेठै ढेहरा देवो...


अक्खड़ हरियाणवी रा रंग ई बांचल्या। बै तो सग्गै नै लुगायां बिच्चाळै बिठा’र इस्या-इस्या सिठणा गावै जाणै सुण ई बो करै-


मैं तन्नै समधी बरज रही, ज्वार मत बीजै...... 

गंडासे पै समधी तै रेती लगवा ल्यो रै समधी तै....

समधी पै पाणी भरा ल्यो रै समधी पै/फोडैगा टोकणी, मारूंगी फूकणी, तोड़ूगी कूणी...


पंजाबी सीठणा में तो और ई खुल्ला बोलै। चावा-ठावा पंजाबी लोक गायक कुलदीपसिंग अर बांरी जोड़ायत बीबी जगमोहन कौर रो गीत ‘पूदना’ (पुदीना) सुणो, गाळां सुणनै में आनंद नीं आवै तो म्हानै कैय देया। 


सचीमुची पूदने नाळ मूं ठरया/ नीं तू खसम तेरहवां करयां/तेरा इक दो नाळ नीं सरया/नीं साडा बड़ा करारा पुदना....

सचीमुची पूदना मरे हरियाई/नीं तेरी भैण ने कर लया नाई/सारे पींड से मची दुहाई/ नीं साडा बड़ा करारा पुदना....

सचीमुची पुदना मेरा कुम्ळाया/तेरी मा की चन्न चढाया/छड्ड तेरा प्यौ ते कर लया ताया/ नीं साडा बड़ा करारा पुदना....

सचीमुची पूदना तेरी खुराक/नीं तू जमके चार जवाक/हजे वी करदी व्या दी झाक/साडा बापु नीं लैंदा साख/ नीं साडा बड़ा करारा पुदना....

सचीमुची पूदना मसालेदार/तेरी भुवा कित्ता कुम्हार/तड़के गधे नूं थापी मार/तेरी बेबे कढदी धार नीं साडा बड़ा करारा पुदना..../


यूपी बिहार में समधी नै इण भांत गाळां गाइजै-


आज हमारी समधन बिके है, कोई ले लो/अठन्नी नहीं है तो चवन्नी में ले लो

समधी जी की जोरू का घाघरा/धोबी धोवै रे छिनाल हाय दैया

समधी जी तो बैठे-बैठे मूंछां ताव लगाते है/सुबह सवेरे चाय बनाकर समधन को पिलाते हैं


मारवाड़ में होळी री फागणिया गीत, जिका सग्गा-सग्गी नै गाइजै, जे आप सुणलो तो कानां रा कीड़ा झड़ जावै। पण के मजाल आं भूंडी गाळां सूं कोई सगो सगी रूस्या होवै। साची बात तो आ कै गाळां अपणायत अर प्रीत प्यार में बधेपो करै, अे माड़ी कियां हो सकै ! ‘मा री गाळ, घी री नाळ’ आपणी ही तो बात है।


आज री हथाई रो सार ओ है, गाळां धपाऊ काडो, पण प्रेम अर हरख री। जे रीसां बळता काडस्यो तो गदीड़ का फदीड़ त्यार है। चेतै राखणो, काळजै लाग्योड़ा बोल आदमी कदेई नीं भुला सकै, इण सारू बस पूगतां किणी नै माड़ो नीं बोलणो, किरोध  री अगन मे बळती गाळ नीं काढणी। हां, जे कणाई भूलचूक सूं कोई माड़ी बात मूंडै सूं नीसर ई जावै तो स्याणप इणी में कै माफी मांगणै में लारै नीं सिरकणो, पग पकड़लो भलंई, देर नीं करणी ! बाकी बातां आगली हथाई में। आपरो ध्यान राखो, रसो अर बसो....।

     -रूंख भायला

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