(गतांक से आगे...)
सीता चलकर राम के पास आयीं। राम के मुखचन्द्र का दर्शन किया और विनयपूर्वक उनके पास खड़ी हो गयीं।
अब यहां से वह कथा प्रारम्भ होती है, जो लोक में प्रचलित है। राम ने सीता को कहा - समराङ्गण में शत्रु को पराजित करके मैंने तुमको उसके चंगुल से छुड़ा लिया। अपने पुरुषार्थ द्वारा जो कुछ किया जा सकता था, वह मैंने किया। अब मेरे अमर्ष का अन्त हो गया। मैंने अपने अपमान का बदला ले लिया। सबने मेरा पराक्रम देख लिया, मैंने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और मैं उसके भार से स्वतन्त्र हो गया।
जब तुम आश्रम में अकेली थी, उस समय राक्षस रावण तुमको हरकर ले गया। यह दोष मेरे ऊपर दैववश प्राप्त हुआ था, जिसका आज मैंने मानवसाध्य पुरुषार्थ से मार्जन कर लिया। हनुमान् ने समुद्र लांघकर लंका का विध्वंस किया, सुग्रीव ने सेना सहित पराक्रम दिखाया, विभीषण दुर्गुणों से भरे हुए भाई रावण को छोड़कर आये, इन सबका परिश्रम आज सफल हो गया।
यहां तक भी सब ठीक ही है। अभी राम ने कोई बात ऐसी नहीं की है कि सीता को कोई चोट पहुंचे। पर अब राम के कथनों में थोड़ी वक्रता आनी प्रारम्भ होती है। पर वाल्मीकि पहले जो कहते हैं, वह अवश्यमेव ध्यातव्य है। वे कहते हैं कि सीता अपने स्वामी राम के हृदय को प्रिय थीं, किन्तु लोकापवाद के भय से राजा राम का हृदय दो भागों में बंट गया था।
पश्यतस्तां तु रामस्य समीपे हृदयप्रियाम्।
जनवादभयाद् राज्ञो बभूव हृदयं द्विधा।।
(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड सर्ग - 115, श्लोक -11)
इस कथन में दो बातें हैं। एक - सीता राम के हृदय की हृदयवल्लभा थीं यानी उनके हृदय को प्रिय थीं। दो - राम को सीता के लिए लोकापवाद का भय था। दोनों में क्या कहीं भी लिखा है कि राम को सीता पर संदेह हो रहा था ? वे सीता के लिए हो सकने वाले लोकापवाद से पीड़ित हो रहे थे। "लोकापवादो दुर्निवार:" यानी लोकापवाद कठिनाई से जाता है। राम इसी आशंका से व्यथित थे। वे यदि सीता पर संदेह नहीं कर रहे थे तो अन्तिम रूप से यही तो माना जाएगा कि वे इस लोकापवाद से सीता को निकालने का प्रयास कर रहे थे।
और यहां से राम ने वह कूटनीतिक प्रयास आरम्भ किया, जो सीता के लोकापवाद को दूर करने का कारण बन सकता था। उन्होंने कहा कि उन्होंने रावण से अपने तिरस्कार का बदला लिया है। मैंने यह युद्ध करने का जो परिश्रम किया है, वह तुम्हारे लिए नहीं किया है, अपितु सदाचार की रक्षा, सब ओर फैले अपवाद और सुविख्यात वंश पर लगे हुए कलंक का परिमार्जन करने के लिए किया है। तुम्हारे चरित्र में संदेह का अवसर उपस्थित है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो। जैसे आंख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती, वैसे ही तुम मुझे अप्रिय जान पड़ती हो।
प्राप्तचारित्रसन्देहा मम प्रतिमुखे स्थिता।
दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकूलासि मे दृढा।।
अतः तुमको जहां जाना हो, वहां चली जाओ। ये दसों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली हुई हैं। अब तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा, जो दूसरे के घर में रही हुई स्त्री को केवल इस लोभ से कि यह मेरे साथ रहकर सौहार्द स्थापित कर चुकी है, मन से भी ग्रहण कर सकेगा।
क: पुमांस्तु कुले जात: स्त्रियं परगृहोषिताम्।
तेजस्वी पुनरादद्यात् सुहृल्लोभेन चेतसा ।।
रावण तुमको गोद में उठाकर ले गया और तुमपर दूषित दृष्टि डाल चुका है, ऐसी दशा में मैं तुमको कैसे ग्रहण कर सकता हूं। अब मुझे तुममें ममता या आसक्ति नहीं है।
तुम भरत या लक्ष्मण के पास सुखपूर्वक रहने का विचार कर सकती हो। तुम शत्रुघ्न , सुग्रीव या विभीषण के पास रह सकती हो। जहां तुमको सुख मिले, वहां मन लगाओ।
रावण तुम जैसी दिव्यसौन्दर्य से युक्त स्त्री को देखकर तुमसे दूर रहने का कष्ट नहीं सह सका होगा।
बड़े ही पीड़ादायक वचन थे राम के। सीता प्रिय वचन सुनने के योग्य थीं, पर चिरकाल से मिले अपने प्रियतम के मुख से ऐसी वाणी सुनकर आंसू बहाने लगीं। उनकी हालत हाथी के सूंड से मसली हुई लता की तरह हो रही थी।
तत: प्रियार्हश्रवणा तदप्रियं प्रियादुपश्रुत्य चिरस्य मानिनी।
मुमोच बाष्पं रुदती तदा भृशं गजेन्द्रहस्ताभिहतेव वल्लरी।।
यही वह हिस्सा है जिसके लिए राम पर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने ऐसा कहकर सीता की अग्निपरीक्षा ली।
यहां विरोधाभास देखिए। राम सीता को पहले ही हनुमान् द्वारा यह संदेश भेज चुके हैं कि उन्होंने सीता के उद्धार के लिए निद्रा त्यागकर समुद्र पर पुल बनाकर यह युद्ध लड़ा और रावण को मारकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। यहां वे कहते हैं कि यह युद्ध उन्होंने अपने कुल के कलंक को धोने के लिए किया है। वाल्मीकि पहले कह चुके हैं कि सीता राम की हृदयवल्लभा थीं और यहां राम कहते हैं कि तुम मुझे प्रिय नहीं जान पड़ती हो।
और सबसे बड़ी बात कि राम सीता के लिए लोकापवाद से व्यथित हो रहे थे। यदि वे स्वयं व्यथित थे, तो सीता को व्यथित क्यों कर रहे थे ? यदि ध्यान दें तो यही पाएंगे कि राम ने सीता को वही बातें कहीं हैं जो लोकापवाद में कही जा सकती थीं। एक बात और, पहले तो वे सीता को कहते हैं कि तुम कहीं भी जा सकती हो और आगे कहते हैं कि तुम लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सुग्रीव अथवा विभीषण के पास रह सकती हो। राम यदि सीता को दूषित मानते तो प्राणों से भी प्रिय अपने भाइयों अथवा मित्रों में से किसी के पास रहने के लिए क्यों कहते ? इससे लगता नहीं क्या कि राम सीता को कटु वाक्य कह तो रहे हैं, पर उसका वास्तविक उद्देश्य कुछ और है। यही तो कूटनीति है।
तो भी यदि किसी के हृदय में शंका या फांस है, तो उसका निरसन आगे किया जाएगा।
(क्रमशः)
- प्रो रजनीरमण झा
मो नं 9414193564






