( एक शहर का दर्द भरा आह्वान )
मैं सूरतगढ़ बोल रहा हूं ! एक लंबे अरसे मैं तुम सबके लड़ाई-झगड़े, शिकवे-शिकायत और आचरण चुपचाप देखता सुनता चला आ रहा हूं लेकिन मेरे बच्चों, आज मुझे भी तुमसे कुछ कहना है. सुनो-
दुकानों और घरों में दुबके मेरे बच्चे-बच्चियों, यह वक्त हाथ पर हाथ धरकर बैठने का नहीं है, सड़क पर उतर कर अपना हक मांगने का है. तुम्हारे बाप के साथ कड़ूम्बे की पंचायत ने अपमानजक दुभांत की है, यदि आज तुम नहीं चेते तो सरकार का यह भेदभाव तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा. संघर्ष की राह पर तुम भी सोचना शुरू करो. बाजार पूरे नहीं तो आधे दिन के लिए भी बंद किए जा सकते हैं, प्रशासन को ठप किया जा सकता है, नगरपालिका, पंचायत समिति और ग्राम पंचायतों में पेन डाउन स्ट्राइक हो सकती है, न्यायालयों का बहिष्कार किया जा सकता है, बिजली बोर्ड के बिल भरने से मना किए जा सकते हैं, सरकार के नुमाइंदों को घेरा जा सकता है आदि आदि.....जाने कितने ऐसे लोकतांत्रिक तरीके हैं जिनसे सरकारों को झुकाया जा सकता है. अपने बाप पर यकीन नहीं तो किसान आंदोलन का इतिहास एक बार फिर देख लो.
समर शेष है नहीं पाप के भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध.
तुलसी रामायण में राम सेतु निर्माण का एक प्रसंग है. जब समूची वानर सेना समुद्र पर सेतु बांधने में व्यस्त थी तब भगवान राम ने देखा कि एक नन्ही गिलहरी भी भागदौड़ कर रही है. वह गिलहरी समुद्र के पानी में खुद को भिगोती और किनारे पड़ी रेत में लोटपोट होकर पुन: समुद्र की ओर दौड़ पड़ती. रेत के कणों को समुद्र में डालने का उसका क्रम अनवरत जारी था. भगवान राम ने उसे हथेली में उठाया और बड़े प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेर कर बोले, " ओ नन्हीं प्यारी गिलहरी ! इतने बड़े सेतु के निर्माण में, जहां वानर सेना बड़े भारी भरकम पत्थरों को ढो रही है वहां तुम्हारे इन रेत के कणों से क्या होगा ? तुम व्यर्थ खुद को कष्ट क्यों दे रही हो ?"
गिलहरी ने उत्तर दिया, "प्रभु, मुझे मेरी लघुता और क्षुद्र प्रयासों का भान है लेकिन जब राम सेतु का इतिहास लिखा जाएगा तो कोई यह नहीं कह पाएगा कि उस वक्त गिलहरी क्या कर रही थी !"
मेरे बच्चों, मैं जिला बनूंगा या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन एक ऐसे वक्त में, जब शहर के बीचोबीच मुट्ठी भर जिंदा लोग आमरण अनशन के साथ धरना प्रदर्शन पर डटे हैं और एक जायज मांग के लिए सरकार से भिड़ने को तैयार हैं, उस समय मेरे इलाके के हर जाये जलमे को रामसेतु की गिलहरी से सबक लेना चाहिए.
मेरे मान सम्मान के लिए लड़ने वाले सभी बच्चों से मैं कहना चाहता हूं, लोकतंत्र में अपनी आवाज उठाना सीखो. मीन मेख निकालना बहुत आसान है लेकिन मोर्चे पर डटे रहना बड़ा कठिन है. एक बेटी पूजा छाबड़ा आमरण अनशन पर बैठी तो मुझे सुकून मिला. कोई तो है जिसे अपने पिता की प्रतिष्ठा की फिक्र है, कोई तो है जो मेरा जयघोष चाहता है. इसी क्रम में जब उमेश मुद्गल ने कंधे से कंधा मिलाते हुए भूख हड़ताल शुरू की तो लगने लगा कि अब मेरे बच्चे सूरतगढ़ की पताका को नीचे नहीं गिरने देंगे. उनकी हौसला अफजाई कर रहे कुछ संघर्षशील नौजवानों के जयघोष सुनकर मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. मैं जानता हूं, मदांध सत्ता का हुक्म बजाते हुए पुलिस और प्रशासन इन बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करेगा, एक के बाद एक अनशनकारी को उठाकर ले जाएगा लेकिन फिर भी संघर्ष जिंदा रहेगा क्योंकि मैं अपने बच्चों से अभी निराश नहीं हुआ हूं.
दुकानों और घरों में दुबके मेरे बच्चे-बच्चियों, यह वक्त हाथ पर हाथ धरकर बैठने का नहीं है, सड़क पर उतर कर अपना हक मांगने का है. तुम्हारे बाप के साथ कड़ूम्बे की पंचायत ने अपमानजक दुभांत की है, यदि आज तुम नहीं चेते तो सरकार का यह भेदभाव तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा. संघर्ष की राह पर तुम भी सोचना शुरू करो. बाजार पूरे नहीं तो आधे दिन के लिए भी बंद किए जा सकते हैं, प्रशासन को ठप किया जा सकता है, नगरपालिका, पंचायत समिति और ग्राम पंचायतों में पेन डाउन स्ट्राइक हो सकती है, न्यायालयों का बहिष्कार किया जा सकता है, बिजली बोर्ड के बिल भरने से मना किए जा सकते हैं, सरकार के नुमाइंदों को घेरा जा सकता है आदि आदि.....जाने कितने ऐसे लोकतांत्रिक तरीके हैं जिनसे सरकारों को झुकाया जा सकता है. अपने बाप पर यकीन नहीं तो किसान आंदोलन का इतिहास एक बार फिर देख लो.
मुझे पता है, मेरे कुछ बेटे-बेटियां राजनीतिक रोटियां सेंकते हुए अपना भविष्य संवारने की सोचते हैं. सोचना भी चाहिए, लेकिन जब सवाल बाप की प्रतिष्ठा से जुड़ा हो तब बच्चों का खून खौलना चाहिए. यदि तुम अपने पिता और परिवार की गरिमा के लिए जमाने से लड़ नहीं सकते, भिड़ नहीं सकते तो यकीन मानो बड़ी जल्दी तुम नष्ट हो जाओगे. तुम्हारी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं धरी रह जाएंगी. इतिहास तुम्हें उठा कर उस 'अकुरड़ी' पर फेंक देगा जिस पर कुकुरमुत्ते भी उगने से शर्माते हैं. याद रखो, संघर्षशील लोग ही इतिहास में दर्ज होते हैं, दुनिया में रेंग कर चलने वालों के फन हमेशा कुचल दिये जाते हैं. इसलिए अभी भी वक्त है मेरे बच्चों संभल जाओ, राजनीति करो लेकिन अपने परिवार के लोगों से गद्दारी मत करो. दलगत राजनीति से ऊपर उठो, अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए हर सत्ता से भिड़ने का माद्दा रखो, फिर भले ही वह तुम्हारी अपनी पार्टी की सरकार क्यों ना हो !
मैं यह भी जानता हूं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था ने मेरे कुछ बच्चों को भ्रष्ट और निकृष्ट बना दिया है. उन्हें सिर्फ स्वार्थ सिद्धि के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता. वे शायद भूल चुके हैं कि उनका अस्तित्व मुझसे ही है, मेरा मान सम्मान बचेगा तभी उनकी दुकानदारी कायम रह पाएगी. मैं उनकी सारी गलतियां माफ कर सकता हूं बशर्ते वे आज घड़ी परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए जूझ रहे बच्चों के साथ खड़े हों, उनके साथ लड़ने मरने को तैयार हों. यदि इनका जमीर अभी नहीं जागा तो उन हरामियों से मुझे कुछ नहीं कहना !
संघर्ष की राह पर चलने वाले सिरफिरों से कहना चाहता हूं, " मेरे प्यारे बच्चों, क्रांति की राह पर जोश अक्सर होश खो देता है, तुम्हारा दिल आग पर और दिमाग बर्फ पर होना चाहिए. अनुशासित और मर्यादित संघर्ष ही सफल हो पाते हैं. अपने मन को बार-बार मजबूती दो, तुम्हें सफल होना है."
जब-जब तुम्हारे कदम लड़खड़ाने लगेंगे, आस्था और विश्वास डगमगाने लगेंगे, मैं तुम्हें जगाने के लिए फिर आऊंगा. इस बात के साथ कि-
मैं तुमको विश्वास दूं
तुम मुझको विश्वास दो
शंकाओं के सागर हम लंघ जाएंगे मरुधरा को मिलकर स्वर्ग बनाएंगे.
तुम्हारा पिता
सूरतगढ़
बहुत बढ़िया , इसे पढ़कर लोगों में जागरूकता बड़े तो अच्छी बात है
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