(बाल साहित्य की पाठशाला-1)
बाल साहित्य सृजन कोई हंसी-खेल नहीं है कि जो हल्का-फुल्का मन में आए, लिख दिया जाए। वर्तमान दौर की अधिकांश बाल रचनाओं में कमोबेश ऐसी ही भावाभिव्यक्ति दिखती हैं जिनमें बच्चों को सिर्फ हंसाने या गुदगुदाने के उद्देश्य की प्रधानता रहती है। ज्यादा हुआ तो आदर्शवाद की चाशनी में लपेटकर साधारण गद्य या तुकबंदी को परोसना ही बाल साहित्य मान लिया गया है। यही कारण है कि ऐसा साहित्य बाल पाठकों के मन में उतर ही नहीं पाता।
कुछ रचनाकार मानते हैं कि बाल साहित्य रचने के लिए बच्चे जैसा मन होना चाहिए। इस कथन में कितनी सत्यता है, यह अपने-अपने अनुभव की बात है। मेरा समझ में तो बाल रचनाओं के लिए बाल मन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण रचनाकार की गहन दृष्टि है जो अपनी क्षमता से तात्कालिक भावों को शब्दों में बांधने की कला जानती है। सृजन का यह नियम सार्वभौमिक है।
हकीकत में बाल साहित्य साधकों को अपने रचाव में कहीं अधिक सजग होना पड़ता है। अक्सर देखा जाता है कि लिखते समय बाल रचनाकारों के मन में शब्दों के चयन और संयोजन के साथ आदर्शवादी भावाभिव्यक्ति के विचार उमड़ते हैं। विचारों के इस महासागर में डूबने के बाद अधिकांश बाल साहित्यकार चाह कर नहीं उबर पाते। नतीजा यह होता है कि अधिकांश बाल रचनाएं परंपरागत रूप से 'मंचीय चुटकुला या आदर्शवादी सीख' बनकर रह जाती है। लेकिन जो रचनाकार इस वैचारिक महासागर को लांघने की क्षमता रखते हैं, उनका सृजन देर तक अपना प्रभाव बनाए रखता है और शब्द साधना की कसौटी पर खरा उतरता है। विश्व की हर भाषा में ऐसी अनेक बाल रचनाएं विद्यमान है जो इस बात की साख भरती हैं।
आज बानगी स्वरूप राजस्थानी लोक साहित्य के एक ऐसे ही बालगीत के माध्यम से विमर्श को आगे बढ़ाते हैंं। 'झगड़ बिलौणो खाटी छा' नामक यह प्रसिद्ध बालगीत न सिर्फ बालमन की सशक्त अभिव्यक्ति है बल्कि थार के संस्कारित परिवेश और विसंगतियों के प्रति उपजे बाल आक्रोश को भी उजागर करता है। इस लोकगीत में बाल मनोविज्ञान बड़ी खूबसूरती के साथ गूंथा गया है।
जल संकट के बावजूद घी-दूध की उपलब्धता थार के रेगिस्तान का अजूबा है। यहां का मानवी अपने पशुधन को परिवार का सदस्य मानकर जीवन यापन करता है। ऐसे ही परिवार का एक बच्चा अपने घर में सुबह दही बिलौने के दृश्य को देखता है, उसके मन में जो भाव उठते हैं, उन्हें रचनाकार ने अपनी गहन दृष्टि से साधते हुए इस गीत के मुखड़े में पिरोया है-
झगड़ बिलौणो खाटी छा
झरड़-झरड़ झर चालै झेरणो
मथै चूंटियो मेरी मा...
थार के लोकगीतों की खास बात यह है कि वहां भाषाई सौन्दर्य का विशेष ध्यान रखा गया है । साधारण शब्दों से सजे इस गीत के मुखड़े में भी 'बैण सगाई' अलंकार देखा जा सकता है।
गीत के पहले अंतरे में बच्चा अपनी व्यस्तता के साथ-साथ उसके प्रति हो रहे बाल अन्याय को उजागर करता है। उसकी शिकायत का अंदाज भी किसी बड़े होते बच्चे की तरह है। वह कहता है, भाग्यवानों के बच्चे तो मक्खन के लौंदे (चूंटियो) चाट रहे हैं और मुझे सिर्फ दही खाने को कहा जा रहा है। जीवन की विसंगतियों को बाल रचनाओं में व्यक्त कर पाना ही इस गीत की खूबसूरती है। देखिए जरा-
उठ तड़कै म्हूं रोही जावूं
दिनभर गा अर भैंस चरावूं
सिंझ्या पड़ियां घर नै आवूं
लूखी आली रोटी खावूं
भागी रा टाबरिया चाटै चूंटियो
मन्नै कैवै दहियो खा
मथै चूंटियो मेरी मा...
दूसरे अंतरे में वह अपनी मां के प्रति समर्पण भाव रखते हुए उसके हर आदेश को पालता है । लेकिन यहां भी वह अपने मन की बात कहने से नहीं चूकता। जब मां दही मथने के बाद बिलोने में से घी का लोंदा तो रसोई के अंदर ले जाती है और उसे सिर्फ थोड़ा सा फिदड़का मिलता है। ऐसे में उसके गुस्से को महसूस कीजिए-
मा रो कैयो म्हूं कदी ना टाळूं
उठ झांझरियै दही नै ठारूं
बैठ्यो बैठ्यो बिन्नै रूखाळूं
आवै बिलड़ी तो चूंपी मारूं
घी रो लोधो माऊ मां ले जावै
कोरो फिदड़को देवै मन्नै ल्या
मथै चूंटियो मेरी मा...
बचपन में पालतू पशुओं के प्रति स्नेह और अपनेपन का भाव स्वाभाविक है। उम्र बढ़ने के साथ मनुष्य अपनी व्यस्तता के चलते ऐसे प्राकृतिक संबंधों से स्वत: ही दूर चला जाता है। इस परमानंद की अभिव्यक्ति गीत के तीसरे अंतरे में गूंथी गई है। इतना होने के बावजूद जब बच्चे के हिस्से का दूध कोई और पी जाता है तो बालमन विद्रोह करने पर उतारू हो जाता है। अंतरा देखिए-
गोरी गा नै गुवार खुवावूं
खाज करूं म्हूं हाथ फिरावूं
छोटै मूमलियै नै गळै लगावूं
दे पुचकारी लाड लडावूं
दूध गटागट पीवै दूसरा
जद हो जावै मेरी भ्यां
मथै चूंटियो मेरी मा...
आदर्शवादी सृजन से इतर दृष्टि रखने वाला यह गीत बाल साहित्यकारों के लिए एक प्रेरणा स्रोत हो सकता है बशर्ते उनमें सीखने की ललक बाकी हो।
-रूंख
दिनभर गा अर भैंस चरावूं
सिंझ्या पड़ियां घर नै आवूं
लूखी आली रोटी खावूं
भागी रा टाबरिया चाटै चूंटियो
मन्नै कैवै दहियो खा
मथै चूंटियो मेरी मा...
दूसरे अंतरे में वह अपनी मां के प्रति समर्पण भाव रखते हुए उसके हर आदेश को पालता है । लेकिन यहां भी वह अपने मन की बात कहने से नहीं चूकता। जब मां दही मथने के बाद बिलोने में से घी का लोंदा तो रसोई के अंदर ले जाती है और उसे सिर्फ थोड़ा सा फिदड़का मिलता है। ऐसे में उसके गुस्से को महसूस कीजिए-
मा रो कैयो म्हूं कदी ना टाळूं
उठ झांझरियै दही नै ठारूं
बैठ्यो बैठ्यो बिन्नै रूखाळूं
आवै बिलड़ी तो चूंपी मारूं
घी रो लोधो माऊ मां ले जावै
कोरो फिदड़को देवै मन्नै ल्या
मथै चूंटियो मेरी मा...
बचपन में पालतू पशुओं के प्रति स्नेह और अपनेपन का भाव स्वाभाविक है। उम्र बढ़ने के साथ मनुष्य अपनी व्यस्तता के चलते ऐसे प्राकृतिक संबंधों से स्वत: ही दूर चला जाता है। इस परमानंद की अभिव्यक्ति गीत के तीसरे अंतरे में गूंथी गई है। इतना होने के बावजूद जब बच्चे के हिस्से का दूध कोई और पी जाता है तो बालमन विद्रोह करने पर उतारू हो जाता है। अंतरा देखिए-
गोरी गा नै गुवार खुवावूं
खाज करूं म्हूं हाथ फिरावूं
छोटै मूमलियै नै गळै लगावूं
दे पुचकारी लाड लडावूं
दूध गटागट पीवै दूसरा
जद हो जावै मेरी भ्यां
मथै चूंटियो मेरी मा...
आदर्शवादी सृजन से इतर दृष्टि रखने वाला यह गीत बाल साहित्यकारों के लिए एक प्रेरणा स्रोत हो सकता है बशर्ते उनमें सीखने की ललक बाकी हो।
-रूंख
वाह बेहतरीन विश्लेषण करता आलेख ।
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