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Thursday 3 September 2020

विधायकों और सांसदों को खुला पत्र

आदरणीय विधायकों और सांसदों, सादर अभिवादन. आज आप सबको चौक चौराहे पर साधारणजन की ओर से संबोधित करने का विशेष प्रयोजन है.


उस दिन को याद कीजिए जब आपने पहली बार अपने भीतर नेतृत्व क्षमता का गुण खोजा था और राजनीति में उतरने का फैसला किया था. हो सकता है कुछ लोगों को यह सब विरासत में मिला हो लेकिन फिर भी आप सब ने उस वक्त समाजसेवा के साथ खुद को जननेता के रूप में स्थापित करने के सपने तो अवश्य देखे होंगे. उन सपनों को पूरा करने के लिए आपने जीवन यात्रा में कड़ी मेहनत के साथ जबरदस्त संघर्ष भी किया होगा. बहुतों का तो आंदोलनों, भूख हड़ताल, पुलिस की मार और जेल की यातनाओं से भी सामना हुआ होगा. षड्यंत्रों भरी राजनीति में आप कदम-कदम पर जाने कितने छल-छंदों और कुटिल समझौतों से जूझे होंगे. संक्षेप में कहूं तो कुम्हार की निहाई में तप कर जैसे मिट्टी का एक कच्चा घड़ा शीतल जल देने वाले पात्र में बदल जाता है, यकीनन वैसा ही कुछ आपके जीवन में भी घटित हुआ है. इन्हीं अच्छे बुरे अनुभवों के चलते कई लोगों को तो केंद्र और राज्यों के विभिन्न मंत्रालयों को संभालने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ है.

लेकिन क्या मंत्री, सांसद और विधायक बनना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है ! भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में, जहां महज 20% वोट पाने वाला प्रत्याशी जनप्रतिनिधि बन जाता हो, जहां चार हजार से अधिक विधायकों और लगभग आठ सौ सांसदों की भीड़ हो, उनमें आपका कद कैसा है, यह बड़ा सवाल है. आप संघर्ष के शुरुआती दिनों को याद कीजिए. आप तो लोकप्रिय और सर्व सम्मत नेता बनना चाहते थे. परंतु सच कहना, क्या आप बन पाए ! हकीकत तो यह है कि आप में से अधिकांश लोग नेतागिरी की वीआईपी जमात में भटक कर रह गए हैं. बड़ी सी गाड़ी और गनमैन के चक्कर में आपकी नेतृत्व क्षमता सुप्त हो गई और आज घड़ी ज्यादातर जनप्रतिनिधि पिछलग्गू व्यापारी की भूमिका में आ गए हैं. सच तो ये है कि 'आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास' की तर्ज पर आप सत्ता के सुख में अपने सपनों को ही भूल बैठे हैं.

राजनीतिक गलियारों में अक्सर कहा जाता है कि देश में जेपी के बाद कोई जननायक नहीं बन पाया. दरअसल, इतिहास के पन्ने बहुत कीमती होते हैं उनमें जननेता के रूप में दर्ज होने के लिए आपको लीक से हटकर चलना पड़ता है. लेकिन विडंबना यह है कि जेपी से अगली पीढ़ी के अधिकांश नेताओं में नैतिक पतन का एक नया दौर शुरू हुआ जो आज तक बदस्तूर जारी है. प्रजातांत्रिक राजनीति में भ्रष्ट आचरण और आपराधिक लिप्तता सदैव आत्मघाती होती है, यह जानते हुए भी हमारे बहुत से माननीय इस दलदल में आकंठ डूब गए हैं. साम, दाम, दंड, भेद की राजनीति से वे भले ही चुनाव जीत जाते हों, लेकिन लोकप्रिय नेता होने का दम नहीं भर सकते. नि:स्वार्थ भाव से जनता के साथ खड़े होने वाले नेताओं को ही इतिहास तरज़ीह देता है वरना आजादी के बाद कितने ही जनप्रतिनिधि आए और क्षणिक चमक दिखाकर लुप्त हो गए. उनमें से कितने लोग जनता के दिलों में जगह बना पाए, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है.

मुद्दे की बात यह है कि कई बार कुदरत ऐसी विषम परिस्थितियां पैदा कर देती है जब नेतृत्व कर रहे मनुष्यों के समक्ष खुद को साबित करने की चुनौती उठ खड़ी होती है. सही मायने में ऐसी चुनौतियां सूझवान के समक्ष अवसर और कायर के लिए आफत होती हैं. संकट की ऐसी विकट घड़ी में राजनीति की बिसात पर कमजोर मोहरे स्वार्थ लिप्सा में फंस कर दम तोड़ देते हैं जबकि कुछ लोग अपने सर्वस्व योगदान से मानव जाति को आपदा से निकाल ही लाते हैं. इतिहास ऐसे मनुष्यों को ही अपने सुनहरे पन्नों पर दर्ज करता है. 

कोविड के संक्रमणकाल में ऐसी ही परिस्थितियां दुनियाभर में उत्पन्न हुई हैं. 
हमारे देश में भी आशंका और निराशा का भाव गहराता जा रहा है. लाखों लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है जिसके चलते रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है. एक बड़े वर्ग के काम धंधे चौपट होने के कारण हमारी अर्थव्यवस्था भी डगमगा गई है और खतरे के संकेत दे रही है. 

ये सब आप से छिपा हुआ नहीं है. तो फिर उठिए और अपनी कमर कस लीजिए. आप में से अपवाद स्वरूप शायद ही कोई विधायक या सांसद होंगे जो अपने परिवार में करोड़ों की सम्पत्ति के मालिक न हो. संकट की इस घड़ी में संवेदनाओं को महसूस करते हुए आप इस सम्पदा का थोड़ा सा हिस्सा भी जनकल्याण में लगा सकें तो आप इतिहास पुरुष साबित होंगे. यदि इसमें कोई गुरेज हो तो इतना सहयोग अवश्य कीजिए कि अपनी जनसेवाओं के बदले सरकार से मिलने वाले समस्त वेतन और भत्तों का न्यूनतम दो वर्षों के लिए परित्याग कर दीजिए. यह ठीक वैसा ही है जिस ढंग से देश के आम आदमी ने सब्सिडी को छोड़ने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं. सरकारी सुविधाओं और अपनी सुरक्षा का तामझाम निजी खर्चे पर व्यवस्थित कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कीजिए. 

आपको बताना चाहता हूं कि आपका यह सामूहिक परित्याग देश की अर्थव्यवस्था में कितना बड़ा योगदान दे सकता है :-
( स्रोत- आरटीआई, सरकारी दस्तावेज)

545 लोकसभा सदस्य @ 71.00 लाख
250 राज्यसभा सदस्य @ 44.00 लाख
4120 विधायक @ औसत 25.00 लाख

प्रति वर्ष के हिसाब से यह राशि 1524.75 करोड़ रूपये बनती है. सुरक्षा व्यवस्था पर खर्च होने वाली राशि इससे अलग है. यदि इसे भी औसतन जोड़ लिया जाए तो सोचिए 2 सालों में आप देश की अर्थव्यवस्था में 5000 करोड़ से अधिक का योगदान दे सकते हैं. आज देश का हर नागरिक अपने खर्चों में कटौती करने की कोशिश कर रहा है. आगे आकर अपने सहयोग की घोषणा कर उसका हौसला बढ़ाइए. आपको याद होगा कि जनसेवा का मार्ग आपने स्वेच्छा से चुना था. उसके लिए वेतन और भत्ते पाने जैसी कोई शर्त नहीं थी. 

इस देश को बचाने के लिए साधारणजन की इतनी सी गुजारिश स्वीकार कर लीजिए. लोकतंत्र पर बोझ बनने की बजाय उसे संवारने का काम कीजिए. यदि देश बचेगा तो राजनीति बचेगी. याद रखिए कि प्राकृतिक आपदाएं पार्टी, धर्म और जात नहीं देखती. कुदरत का कहर अमीरी और गरीबी में फर्क नहीं करता. हां, मनुष्य अगर चाहे तो अपनी सूझबूझ से बहुत बड़ा फर्क ला सकता है.

अपने शुरुआती सपने को याद करते हुए जननेता बनने की तरफ कदम बढ़ाइए. इतिहास आपकी प्रतीक्षा कर रहा है....

सादर

डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
94140-90492
kapurisar@gmail.com

3 comments:

  1. बहुत खूब। काश, हमारे जनप्रतिनिधि इसकी गंभीरता को महसूस करते !

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