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Monday 21 September 2020

तो आखिर रुक ही गई नीलामी !


- करोड़ों की व्यवसायिक जमीन को आवासीय भूखंडों के रूप में बेचने का गड़बड़झाला
- न्यायिक हस्तक्षेप से सूरतगढ़ नगरपालिका की नीलामी रोकने के आदेश.


यह लोकतंत्र की खूबसूरती है साहब ! सत्ता कितनी भी ताकतवर हो, अपने मंसूबे पूरे करने के लिए कितने ही छल छंद रचे, जनता को बेवकूफ समझ कर उसकी आंखों में धूल झोंकने के लाख जतन करे, जरूरी नहीं कि उसे कामयाबी मिले. संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका का हथोड़ा एक बार तो बड़े-बड़े सत्ताधारियों का गुरूर तोड़ देता है. 


ऐसा ही कुछ सूरतगढ़ नगरपालिका की आज होने वाली बहुचर्चित भूखंड नीलामी के साथ हुआ है. दोपहर तक पालिका द्वारा बड़े जोर-शोर से शहर में इन कीमती भूखंडों की नीलामी हेतु लाउडस्पीकर पर मुनादी की जा रही थी लेकिन ऐन वक्त पर बाजार के बीच स्थित करोड़ों की व्यावसायिक जमीन को आवासीय भूखंडों के रूप में बेचने के मामले में न्यायालय द्वारा इस नीलामी को रोकने के आदेश जारी किए गए. पालिका के पूर्व अध्यक्ष बनवारी मेघवाल और एडवोकेट पूनम शर्मा की संयुक्त याचिका पर न्यायालय द्वारा यह स्थगन आदेश जारी किया गया है. न्यायालय द्वारा 28 सितंबर तक नीलामी पर रोक लगाई गई है. वादी पक्ष की ओर से खुद एडवोकेट पूनम शर्मा और एडवोकेट सुभाष विश्नोई ने पैरवी की.





लेकिन साहब हठ तो हठ है. फिर राज हठ के क्या कहने ! सब कुछ जानते हुए भी जब पालिका प्रशासन अपनी फजीहत करवाने पर तुला हो तो उसे कौन रोक सकता है. सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर पालिका को यह जमीन बेचने की इतनी जल्दी क्यों है ?

माना कि पालिका की आर्थिक हालात ठीक नहीं है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि घर का कीमती सामान बेचना शुरू कर दिया जाए. पालिकाध्यक्ष ओमप्रकाश कालवा पूर्व में शिक्षक रहे हैं और एक अनुभवी व्यापारी भी हैं लेकिन उसके बावजूद पालिका की आय के वैकल्पिक साधन तलाशने की बजाय कीमती संपत्तियों के बेचान का मार्ग अपना रहे हैं, जो कतई उचित नहीं कहा जा सकता. और यदि बेचना इतना जरूरी ही है तो कम से कम उसका मूल्य तो पूरा वसूलें.

खैर इस प्रकरण में एडवोकेट पूनम शर्मा और पूर्व पालिकाध्यक्ष बनवारी मेघवाल ने विपक्ष की भूमिका निभाकर एकबारगी नीलामी को रुकवा दिया है. इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं लेकिन विपक्षी पार्षदों और भाजपा के विधायक रामप्रताप कासनिया की क्या कहें ! उन्हें तो जैसे सांप ही सूंघ गया है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष जब अपनी भूमिका निभाने से गुरेज करने लगता है तो सत्ता पक्ष का निरंकुश होना स्वाभाविक है. ऐसी स्थिति में जनता जनार्दन से निकलने वाली साधारण आवाजें ही कभी-कभी सत्ता की लगाम कस देती है. और बहुचर्चित नीलामी प्रकरण में आज यही हुआ है.

न्यायिक आदेेेश की प्रति





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