- केंद्र सरकार की नीतियों का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट है कि सरकारी रीतियां और नीतियां कारपोरेट जगत के हितों से जुड़ी हुई है. ताजा मामला राष्ट्रीय राजमार्गों पर स्थित टोल नाकों के डिजिटलाइजेशन का है. राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने फास्ट टैग की आड़ में आम आदमी की जेब काट कर टोल वसूल रही कंपनियों और बैंकों के खातों में एक झटके में करोड़ों रुपए भर दिए हैं.
सरकार द्वारा 1 जनवरी से वाहन मालिकों को अपनी गाड़ी पर फास्टैग लगवाने के आदेश जारी हो चुके हैं. इसके लिए वाहन मालिक को टैग जारी करने वाले बैंक के पास अपना फास्टैग अकाउंट खोलना होगा और उसमें न्युनतम 200 रू़पये की राशि जमा करनी होगी. किसी भी टोल से उस वाहन के गुजरते समय सेंसर और कैमरे के जरिए स्वतः ही टोल टैक्स कट जाएगा. डिजिटलाइजेशन की सुविधा वाकई शानदार है लेकिन इस सुविधा की आड़ में सरकार ने आम आदमी की जेब से चुपचाप करोड़ों रुपए निकालकर बैंकों के खाते में पहुंचा दिए हैं. इतना ही नहीं, जो वाहन मालिक फास्टैग का उपयोग नहीं कर रहे हैं उनकी जेब काटने के रास्ते भी निकाल लिए गए हैं.
टोल नाकों की पूर्व् व्यवस्था के अनुसार यदि कोई वाहन एक टोल नाके से 24 घंटे की अवधि में आना-जाना करता था तो उसे टोल भुगतान करते समय डिस्काउंट दिया जाता था और वाहन मालिक अपने फायदे के लिए एक साथ टोल पर्ची कटवा लेता था. लेकिन नई व्यवस्था लागू होने के बाद यदि कोई व्यक्ति टोल पर नकद भुगतान करता है तो उसे यह डिस्काउंट नहीं मिल रहा है. इसके लिए बाकायदा राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने आदेश जारी किए हैं. सोचिए, टोल वसूल रही कंपनियों को एक छोटे से आदेश से कितना बड़ा आर्थिक फायदा होने वाला है. सरकार की इस मनमानी पर सब मन मसोसकर रह जाते हैं क्योंकि किसी के पास भी ऐसे नियमों के विरुद्ध संघर्ष करने का समय ही नहीं है.
टोल वसूल रही कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण यहीं नहीं रुका है बल्कि उसने एक और चतुराई भरा आदेश जारी किया है. इस आदेश के अनुसार यदि कोई वाहन, जिसके फास्टैग नहीं लगा हुआ है, वह फास्टैग की लाइन में आ जाता है तो उसे टोल शुल्क का दुगना भुगतान करना होगा. भले ही वह किसी टोल कर्मी की गलती से उस लाइन में आ गया हो. घड़ी भर के लिए यह मान भी लिया जाए कि गलत लेन में आने का जुर्माना तो भरना ही पड़ेगा तो वह जुर्माना टोल शुल्क का दुगुना होना कहां तक जायज है ?
आखिर अवैध वसूली का यह खेल किसके लिए खेला जा रहा है.जरा सोचिए, एक ऐसा व्यक्ति, जिसके पास अपनी कार है और वह महीने में मुश्किल से चार बार किसी टोल नाके से गुजरता है. उस व्यक्ति के लिए फास्टैग सिस्टम कहां तक जरूरी है. वह क्यों किसी बैंक में अपना फास्टैग अकाउंट रखें और उसमें अग्रिम धनराशि जमा करें ? टोल कंपनी को नकद धनराशि देते समय उसे कैश डिस्काउंट से वंचित क्यों किया जाए ? भारतीय संविधान में हर नागरिक को समता का अधिकार दिया गया है लेकिन हाईवे अथॉरिटी ने वाहन मालिकों के बीच विभेदकारी नीति अपनाकर इस अधिकार पर लगाम कसने का काम किया है.
ऐसे सवालों का राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के पास एक ही जवाब है कि डिजिटलाइजेशन करने के लिए यह सब जरूरी है. कॉरपोरेट की भाषा में कहें तो बेहतर सुविधाओं के लिए यह व्यवस्था की गई है जबकि देश के टोल नाकों पर कितनी बेहतर सुविधाएं हैं यह देश का आम आदमी भली भांति जानता है. इन टोल नाकों पर नियुक्त किया गया स्टाफ किसी बाउंसर से कम नहीं होता जो वाहन मालिक द्वारा कुछ भी पूछताछ अथवा प्रतिवाद किए जाने की स्थिति में मारपीट पर उतारू होता है. टोल कंपनियों द्वारा सड़कों का रखरखाव भी गुणवत्तापूर्ण नहीं है. कई स्थानों पर तो यह हालत है कि सड़कों का निर्माण भी पूरा नहीं है. उसके बावजूद सरकार ने इन कंपनियों से मिलीभगत करते हुए उन्हें टोल वसूल करने के आदेश जारी कर दिए हैं. सरकार द्वारा सड़क सुरक्षा मानकों को पूरी तरह से ताक पर रख दिया गया है जिसका खामियाजा दुर्घटनाओं के रूप में अक्सर आम आदमी भुगतता है. सूरतगढ़ से बीकानेर के बीच स्थित राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 62 इसका बेहतरीन उदाहरण है. मजे की बात यह है कि स्थानीय पुलिस प्रशासन भी नियम कायदों की आड में पीड़ित व्यक्ति की शिकायत पर लीपापोती करता हुआ नजर आता है. कमोबेश ऐसी स्थिति देश के लगभग सभी टोल नाकों पर देखी जा सकती है.
निजीकरण की यह सरकारी नीति लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में नहीं है. सरकार को आम आदमी के हितों को ध्यान में रखते हुए फैसले लेनी चाहिए क्योंकि यही लोकतंत्र का मूल मंत्र है.
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