जो लोग सरकारों को ताकतवर और निडर बताते नहीं थकते उन्हें नहीं पता कि सरकारें वास्तव में भीतर से कितनी डरपोक और आशंकित रहती हैं. विधानसभा सत्र से पूर्व राजस्थान सरकार का एक आदेश इस अज्ञात भय का ताजा उदाहरण है. प्रदेश भर के कुछ नेताओं को विधानसभा में सत्र चलने के दौरान प्रवेश से वर्जित किया गया है और उन्हें पाबंद करने की पुलिस प्रक्रिया प्रारंभ हुई है. गंगानगर जिले से भी 13 लोगों के नाम इस प्रक्रिया के अंतर्गत चिन्हित किए गए हैं. इनमें से अधिकांश जन आंदोलनों से जुड़े हुए उन नेताओं के नाम है जो या तो कामरेड है या फिर मजदूर और किसानों के हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं.
श्रीगंगानगर के संघर्षशील नेता
इनमें भूरामल स्वामी, श्योपत मेघवाल, राकेश बिश्नोई, लक्ष्मण सिंह, कालू थोरी, अनिल गोदारा, रणजीत सिंह राजू, कालूराम मेघवाल, संतवीर सिंह मोहनपुरा, तेजेंद्र पाल सिंह टिम्मा, वी.एस. राणा, राजेश भारत व गुरचरण सिंह मोड शामिल है. यहां तक कि सीआईडी सुरक्षा द्वारा दो पूर्व विधायकों हेतराम बेनीवाल और पवन दुग्गल के फोटोग्राफ भी मांगे गए हैं. सरकार की नजरों में उक्त लोग व्यवस्था को बिगाड़ सकते हैं लिहाजा उनके खिलाफ विधि सम्मत कार्यवाही होनी जरूरी है. विचारणीय तथ्य यह है कि इनमें किसी भी भाजपा नेता का नाम शामिल नहीं है. तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि या तो सत्ता और विपक्ष का गठजोड़ हो चुका है या फिर सरकार को अपने मुख्य विपक्षी दल भाजपा से किसी प्रकार भय नहीं है.
शांति भंग और कानून व्यवस्था के नाम पर सरकारों द्वारा संसद और विधानसभाओं के विशेष नियम बनाए गए हैं जिनके तहत इस ढंग से जन आंदोलनों से जुड़े नेताओं को पाबंद करने का खेल रखा जाता है. विशेषाधिकार की आड में सरकार अपने सूचना तंत्र के जरिए विपक्ष के मुखर नेताओं पर नकेल डालने की कोशिश करती है. इस प्रक्रिया में वामपंथी और जन आंदोलनों से जुड़े नेताओं को सबसे अधिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है क्योंकि अन्य राजनीतिक दलों की अपेक्षा सड़कों पर आमजन की लड़ाई में उनकी भागीदारी ही सबसे अधिक रहती है. वर्तमान संदर्भ में भी बात करें तो प्रदेश का विपक्ष सोया हुआ प्रतीत होता है जिसे जन समस्याओं से ज्यादा मतलब नहीं है. भाजपा के नेता और कार्यकर्ता इन दिनों सिर्फ विज्ञप्तियां जारी करने वाले विरोध प्रदर्शन की शैली अपना रहे हैं. विद्युत बिलों का मामला हो अथवा प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था, दोनों मामलों पर भाजपा मुखरित होकर विरोध नहीं कर पाई है. भाजपा प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया जहां अपने संगठन की मजबूती का राग अलाप रहे हैं वहीं पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे 'साइलेंट मोड' पर हैं.
सरकारों द्वारा जनता की आवाज को बुलंद करने वाले नेताओं की छवि धूमिल करने के षडयंत्र नए नहीं हैं. कानून व्यवस्था के नाम पर पाबंद करने के अधिकार का दुरुपयोग करना सरकार के लिए बाएं हाथ का खेल है. इसी का नतीजा है कि देश और प्रदेश में संघर्षशील नेताओं की छवि फितरती और जन भावनाओं को भड़काने वाली बना दी गई है और उनकी पग-पग पर मानहानि की जाती है. इन षड़यंत्रों के सबसे बड़े शिकार कामरेड नेता हुए हैं जिनकी फजीहत करने में सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है. जनमानस में यह धारणा बनाने का कुत्सित प्रयास किया जाता है कि कामरेड का मतलब ही लड़ाई और झगड़े और दंगे हैं. यह अलग बात है कि जन संघर्ष करने वाले इन नेताओं की सभाओं में आज भी अपार जनसमूह जुटता है जबकि कांग्रेस और भाजपा की सभाओं में भीड़ जुटाने को लेकर विशेष कवायद होती है.
हां, इतना अवश्य है कि हर सत्ता अपने प्रतिद्वंदी को परास्त करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर अक्सर संघर्षशील नेताओं की छवि को धूमिल करने में कामयाब हो ही जाती है. इसी का नतीजा चुनाव के वक्त देखने को मिलता है जब जनता संघर्षशील नेताओं की बजाय बड़े झंडों में लिपट कर रह जाती है. लुभावने वायदे और झूठे जुमले जनता के दिमाग से संघर्ष के जज्बे को मिटा देते हैं. परिणाम यह होता है कि 'संघर्ष' एक बार फिर सड़कों पर रह जाता है और ' फर्जी विज्ञप्तियां' संसद और विधानसभा में पहुंच जाती है.
-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
(वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक चिंतक)
सवाल बड़ा है कि क्या राज्य में सत्तापक्ष और विपक्ष में गठजोड़ हो चुका है ?
ReplyDeleteसवाल बड़ा है कि क्या राज्य में सत्तापक्ष और विपक्ष में गठजोड़ हो चुका है ?
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