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Tuesday 17 August 2021

पन्द्रह अगस्त, पन्द्रह चुनौतियां

देश संसद और विधानसभाओं में नहीं बनता. उसके बनने की वास्तविक प्रक्रिया अगर देखनी हो तो आपको खेत-खलिहानों से होते हुए उद्योगों की भट्टियों तक पहुंचना होगा, तपती दुपहरी में सड़क बनाते काले-कलूटे श्रम साधकों के पास जाना होगा. दरअसल, श्रम का पसीना ही देश का निर्माण करता है. राजपथ हो या लाल किले की प्राचीर, कुदाल और तगारी के बिना कुछ भी संभव नहीं है. 15 अगस्त के दिन जब हम आजादी के गीत गा रहे होते हैं उस वक्त भी हमारे करोड़ों कामगार अपने तन को श्रम की भट्टियों में झोंक रहे होते हैं. उनके कानों तक आजादी के गीतों की गूंज कैसे पहुंचे, उन्हें गरीबी और भुखमरी से कैसे निजात मिले, उनके स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाएं कैसे बेहतर हों, यह आत्मनिर्भर होने का स्वप्न देखने वाले भारतीय गणतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती है.


75वें स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर केन्द्रीय गृह मन्त्रालय ने आह्वान किया है कि इस बार ‘आत्मनिर्भर भारत’ की थीम के साथ स्वतन्त्रता का उत्सव मनाया जाए. आजादी के 74 साल बाद आज हम जिस मुकाम पर खड़े हैं वह आत्मनिर्भर भारत का ही तो एक उदाहरण है. दरअसल, आत्मनिर्भरता की थीम तो 15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में पं. जवाहरलाल नेहरू के ऐतिहासिक भाषण ‘ए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ के साथ ही शुरू हो गई थी जिसमें उन्होंने कहा था कि आज रात बारह बजे जब सारी दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतन्त्रता की नई चमकती सुबह के साथ उठेगा. नेहरू के शब्द थे कि भविष्य हमें बुला रहा है और हमें क्या करना चाहिए जिससे कि हम आम आदमी, किसानों और मजदूरों के लिए अवसर पैदा कर सकें, निर्धनता मिटा सकें और एक समृद्ध लोकतांन्त्रिक और प्रगतिशील देश बना सकें.


बीते सात दशकों में तमाम विपरीत परिस्थितियों और कमियों के बावजूद भारत अंतर्राष्ट्रीय मंच पर एक शक्ति के रूप में उभरा है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र की उपलब्धि यह है कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा के दौर में हमनेे विकास के हर क्षेत्र में समय के साथ कदमताल मिलाई है. अंतरिक्ष अनुसंधान की बात हो या खाद्यान्नों में आत्मनिर्भता, सॉफ्टवेयर निर्माण हो या भारी उद्योग, भारत विकसित देशों की तुलना में कहीं कमतर नहीं दिखता. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘ए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ में जिस भारत की कल्पना की गई है उसके लिए सतत प्रयास करने होंगे. इसके लिए उपलब्धियों के साथ-साथ कमजोरियों और चुनौतियों को स्वीकार करना भी जरूरी है. राष्ट्रनिर्माण के जिन मोर्चों पर हम नाकाम रहे हैं उन्हें चिन्हित कर पुनः सुनियोजित ढंग सफल बनाना हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी है.


15 अगस्त के अवसर पर आइए, उन 15 चुनौतियों को जानें जो आत्मनिर्भर भारत के दिव्य स्वप्न को साकार करने की दिशा में अहम हैं.


1. महामारी से कैसे मिले मुक्ति


कोरोना महामारी ने पिछले दो सालों में समूचे विश्व को हिला कर रख दिया है. एक ओर जहां लाखों लोग असमय ही काल कवलित हुए हैं वहीं लम्बे लॉकडाउन के चलते अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था पर भी आर्थिक संकट गहरा गया है. भारत जैसे विकासशील देश में, जहां लगभग 140 करोड़ की आबादी है, वहां यह वैश्विक आपदा कितनी भयावह रही है, इसका अंदाजा ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ने वाले वाले हजारों लोगों की तस्वीरों से बखूबी लगाया जा सकता है. इस आपदा में शहरों से गांवों की ओर पैदल पलायन करते दिहाड़ी मजदूरों के दर्द ने मानवता को झकझोर कर रख दिया है. आजादी के 74 सालों बाद भी देश में पर्याप्त आधारभूत ढांचे का निर्माण न होना हमारी राजनीतिक विफलता को इंगित करता है. आज देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का आलम यह है कि हमारे चिकित्सालयों में प्रति 1,050 मरीजों पर एक बेड उपलब्ध है. प्रति 1445 रोगियों के लिए एक डॉक्टर है. वैंटीलेटर्स युक्त बैड्स की संख्या उपलब्धता तो ऊंट के मुंह में जीरे के समान है.


समूचे विश्व में कोरोना की तीसरी लहर की आशंका जताई जा रही है. यह वायरस नित्य प्रति अपने नये वेरियंट मंे उजागर हो रहा है जिसके चलते मानव जीवन के प्रति निरंतर खतरा बना हुआ है. आज घड़ी इस महामारी से मुक्ति पाना हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है. अच्छी बात यह है कि भारत दुनिया के उन गिने-चुने देशों में है जिन्होंने अपने देश में ही वैक्सीन तैयार करने में सफलता पाई है. शुरुआती दिक्कतों के बाद आज देश में मुफ्त वैक्सीनेशन का काम युद्ध स्तर पर जारी है. चिकित्सा विभाग के आंकड़ों के मुताबिक देश में 50 करोड़ से अधिक लोगों का वैक्सीनेशन हो चुका है और सरकार दिसम्बर के अंत तक इसे पूरा करने की बात कर रही है. आज आवश्यकता इस बात की है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार और विस्तार को सर्वोच्च प्राथमिकता मिले और समयबद्ध काम हो. संकट की इस घड़ी में सबसे जरूरी काम यह है कि हमारे डॉक्टर्स और नर्सिंग स्टाफ को बेहतरीन कार्य सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाएं ताकि उनका मनोबल बना रह सके. कोरोना की जंग को सामूहिक प्रयासों से ही जीता जा सकता है.


2. डगमगाती अर्थव्यवस्था और विनिवेश


कोरोना महामारी ने समूचे विश्व की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है जिससे विशेषज्ञों के सारे अनुमान और नियोजन धरे रह गए हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था भी इससे अछूती नहीं  रही है.  हालांकि महामारी की पहली लहर के बाद, वित्तीय वर्ष 2020-21 की तीसरी तिमाही से हमारी अर्थव्यवस्था इस संकट से उबरने के संकेत देने लगी थी लेकिन कोरोना की दूसरी लहर ने देश के आर्थिक ढांचे पर पर जबरदस्त प्रहार किया है. दूसरी लहर से अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र को विशेष रूप से गहरी चोट पहुंची है. सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए मई 2020 में 20 लाख करोड़ के आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा के भी कोई विशेष परिणाम देखने को नहीं मिले हैं. देश में खुदरा व्यापार और लघु उद्योग धंधों पर सबसे अधिक मार पड़ी है. छोटे दुकानदारों और स्ट्रीट वेण्डर्स के काम लगभग समाप्त हो गए हैं. कमोबेश सेवा क्षेत्र में भी यही हाल है. नोटबंदी के बाद हमारा बैंकिग सैक्टर भारी एनपीए की समस्या से जूझ रहा है जिसे दूर करने के लिए हमारे पास सिर्फ सैद्धांतिक कार्य योजनाएं हैं जिनसे परिणाम की उम्मीद लगाना बेमानी है. सरकार अपने वित्तीय प्रबंधन में विनिवेश के जरिये अर्थव्यवस्था को साधने की कोशिश कर रही है जबकि यह कोई बेहतर विकल्प नहीं है.


ऐसा नहीं है कि देश पर इस तरह के संकट पूर्व में नहीं आए हों. 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी देश में अर्थव्यवस्था के पुर्ननिर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी. हौसले के साथ लागू की गई विभिन्न नीतियों और पंचवर्षीय योजनाओं ने देश की विकास गाथा में अहम रोल निभाया. हालांकि उस दौर में भी देशवासियों को काफी उतार-चढ़ाव भरे दिन देखने पड़े. जनता ने जहां खुशहाली का दौर देखा तो वहीं आर्थिक संकट का समय भी बखूबी झेल़ा. एक वक्त में तो देश के खजाने तक को गिरवी रखने जैसे हालात पैदा हो गए थे.

इस गिरावट से उबरने के लिए भी सरकार को वैसे ही हौसले के साथ महामारी प्रबंधन की रणनीति और विद्यमान परिस्थितियों में समन्वय बिठाने की जरूरत है. संकट की घड़ी में खर्चों में कटौती और तात्कालिक आय की अवधारणा हमेशा श्रेयस्कर रहती है, इसे अमल में लाना नितांत आवश्यक है. लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के नाम पर देश की आय का एक बड़ा हिस्सा हमारे माननीय और प्रशासनिक अधिकारियों की सुविधाओं पर खर्च होता है, सरकार को उसे नियंत्रित कर बेहतर प्रबंधन की मिसाल प्रस्तुत करनी चाहिए. कोरोना के कारण कारोबारों और रोजगार पर पड़े बुरे प्रभाव से अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए सरकार को कड़े कदम उठाने की जरूरत है.


3. वैश्विक मंच पर हो प्रभावी उपस्थिति 


विश्व समुदाय में भारत की छवि एक शांतिप्रिय देश की है जहां विकास की अपार संभावनाएं मौजूद हैं. लेकिन उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग न कर पाने के कारण हमारा देश आज भी विकसित देशों की श्रेणी में नहीं आ पाया है. सबसे बड़ा लोकतन्त्र होने के बावजूद भारत आज भी संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में स्थायी सीट के लिए तरस रहा है. यह हमारी विदेश नीति की विफलता का बड़ा उदाहरण है. आज हम अमेरिका के पिछलग्गू बनते जा रहे हैं जबकि रूस जैसे पुराने मित्र राष्ट्र की अनदेखी कर हो रही है. इसका परिणाम यह है कि रूस अब पाकिस्तान से नजदीकियां बढ़ा रहा है जो हमारे लिए कतई ठीक नहीं है.


प्रति व्यक्ति आय के मामले में हम विश्व के अनेक छोटे-छोटे देशों से बहुत पीछे हैं. ग्लोबल सिटी के नाम पर हमारे देश का एक भी शहर ऐसा नहीं है जो विश्वस्तरीय शहरों के मुकाबले में खड़ा हो. देहात की बात तो छोड़ ही दें, हम अपने शहरों में बिजली, पानी और सीवरेज जैसी आधारभूत सुविधाओं का निर्माण ठीक ढंग से नहीं कर पाए हैं. अभियांत्रिकी और तकनीक के मामले में जापान और कोरिया जैसे अपेक्षाकृत छोटे देशों से बहुत पीछे हैं. हमारी शैक्षणिक और स्वास्थ्य सुविधाएं विकसित देशों के मुकाबले कहीं नहीं ठहरती. परिवहन और संचार के साधनों की समुचित अनुपलब्धता भी हमें वैश्विक विकास मंच पर पीछे धकेल देती है. ं140 करोड़ की जनसंख्या होने के बावजूद हम ओलम्पिक और विश्व खेल प्रतिस्पर्धाओं में स्वर्ण पदक को तरसते रहते हैं. ओलम्पिक के आयोजन का तो हम सिर्फ ख्वाब ही देख सकते हैं.


वैश्विक मंच पर प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए जरूरी है कि हम अपने आत्मबल को बढ़ाने का काम करें. संसद और विधानसभाओं में बैठे हमारे माननीयों का दायित्व है कि वे राष्ट्रनिर्माण की अनूठी मिसाल पेश करें. गांधी बनने के लिए जीवन में गांधी सा आचरण उतारना जरूरी है जिसने नंगे देशवासियों को देखकर सिर्फ लंगोटी में अपना जिंदगी गुजार दी थी. हमारे सपने उस वक्त धूमिल होते नजर आते हैं जब हमारे मुखिया देश की ब्रांडिंग करने की बजाय खुद की छवि को निखारने का काम करते दिखाई देते हैं.


4. सड़कों पर बैठा है देश का अन्नदाता


आजादी के 75वें वर्ष में देश के किसान केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ सड़कों पर बैठे हैं, यह अपने आप में चिंता का विषय है. पिछले आठ माह से चल रहे इस किसान आंदोलन में अब तक 600 से अधिक किसानों की शहादत हो चुकी है जिसकी गूंज अंतरराष्ट्रीय मंचों तक जा पहुंची है. आंदोलनकारी किसान केंद्र सरकार द्वारा कोरोना काल में पारित किए गए तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं वहीं सरकार इन कानूनों को किसान हितैषी बता रही है. गतिरोध समाप्त करने के लिए सरकार और किसानों के बीच ग्यारह दौर की वार्ता में भी कोई नतीजा नहीं निकल पाया है. जहां सरकार इन कानूनों में संशोधन करने की बात कह रही है वहीं किसान संगठन इनकी वापसी पर अड़े हैं. दरअसल, यह मामला स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने और उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य से जुड़ा हुआ है जिस पर सरकार कानून बनाने से बचना चाहती है. सरकार पर यह भी आरोप है कि उसने व्यापार संवर्धन की आड़ में आवश्यक वस्तुओं के भंडारण को नियंत्रण मुक्त कर दिया है. इससे आम धारणा है यह बनी है कि सरकार के इस फैसले से कालाबाजारी और जमाखोरी को बढ़ावा मिलेगा और महंगाई बेलगाम हो जाएगी.


सत्ता और किसानों के बीच जारी यह गतिरोध देश के विकास में बाधक बन रहा है. किसान अपना आंदोलन खत्म कर खेतों की ओर कैसे लौटंे, यह बड़ी चुनौती है. बातचीत से हर समस्या का समाधान संभव है इसलिए देश के मुखिया, यानि प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे एक कदम आगे बढ़कर इस आंदोलन को समाप्त करवाने की पहल करंे. सरकारें जनभावनाओं की अनदेखी कर कभी भी सफल नहीं हो सकती हैं, राजनीति में सफलता का यही मूलमंत्र है.


5. महंगाई डायन खाए जात है !


कोरोना महामारी के बीच बढ़ती महंगाई का मुद्दा कोढ़ में खाज होने सरीखा है. काम-धंधे चौपट होने के साथ-साथ आसमान छूती महंगाई ने आम आदमी का जीना ही दूभर कर दिया है. पेट्रोल-डीजल पर लगातार टैक्स बढ़ाए जाने से इनकी कीमतों में भारी वृद्धि हुई है जिसने देश के मध्यम वर्ग की कमर तोड़ कर रख दी है. रोजमर्रा की घरेलू चीजों के अलावा खाद्य तेलों के दामों में भी बढ़ोत्तरी हुई है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार खाद्य तेलों के दाम पिछले एक दशक के अपने सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गए हैं. इसके चलते देश में अप्रैल, 2021 के आंकड़ों के मुताबिक थोक मंहगाई दर रिकॉर्ड स्तर (डब्ल्यूपीआई) 10.49 फीसदी पर जा पहुंची है. थोक महंगाई दर का ये ऑल टाइम हाई (सर्वकालिक उच्च स्तर) है.


महामारी संकट के इस दौर में सरकारंे महंगाई पर काबू पाने में नाकामयाब रही हैं. उनकी गलत नीतियों और फैसलों के कारण महंगाई में बेतहाशा इजाफा हुआ है. आज चुनौती इस बात की है कि बढ़ती हुई कीमतों को कैसे नियंत्रित किया जाए. महामारी प्रबंधन और आधारभूत ढांचे के निर्माण के नाम पर सरकार टैक्स वृद्धि को तो जरूरी मानती है लेकिन आय के साधन बढ़ाने और रोजगार उपलब्ध करवाने के नाम पर चुप्पी साध लेती है.


6. बेरोजगारी से त्रस्त है देश की युवा शक्ति


जिस देश में दुनिया की सबसे बड़ी युवाशक्ति निवास करती हो वहां अगर बेरोजगारी पांव पसारे बैठी है तो विकास की कल्पना करना ही बेमानी है. यथार्थ का धरातल ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन और अन्य एजेंसियों के ताजा सर्वेक्षण भी स्पष्ट उल्लेख कर रहे हैं कि भारत में बेरोजगारी का ग्राफ बढ़ा है. आईएलओ की मानें तो 2020 में भारत की बेरोजगारी दर बढ़ कर 7.11 फीसदी हो चुकी थी. यह पिछले तीन दशकों की सबसे ज्यादा है. मई 2021 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में शहरी बेरोजगारी दर 17.41 फीसदी पर पहुंच चुकी है. ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं. शिक्षित लोगों मे बेरोजगारी के हालात ये हैं कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के पद के लिए एमबीए और इंजीनियरिंग के डिग्रीधारी भी आवेदन करते हैं. सरकारी भर्तियों में बेरोजगारों की भीड़ के सामने पदों की संख्या ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली हो जाती है. 

जिन युवाओं के दम पर हम उज्ज्वल भविष्य की उम्मीदें लगा रहे हैं, उनके हालात बेरोजगारी के चलते बेहद निराशाजनक हैं. इसका नतीजा यह है कि हमारा युवावर्ग नशे की राह पर चल पड़ा है. युवाओं में आत्महत्या के बढ़ते मामले भी चिंता का विषय हैं. विशेषज्ञों के अनुसार केंद्र व राज्य सरकारें देश में रोजगार आधारित उद्योग और नयी नौकरियां पैदा करने में नाकाम रही हैं. प्रधानमन्त्री की जिस कौशल विकास योजना को लेकर बड़े-बड़े दावे किये जा रहे थे उसके नतीजे भी ढाक के तीन पात वाले रहे हैं. सरकार को चाहिए कि इस मसले पर वह पुनः गंभीरता से विचार करे. देश में बेरोजगारी की दर कम किए बिना विकास का दावा करना कभी भी न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता. .

7. भ्रष्टाचार की बीमारी से जूझता भारत़


‘जल में रहने वाली मछली कब पानी पी ले, किसी को पता ही नहीं चलता’ मौर्यकाल में कही गई चाणक्य की यह उक्ति शासन तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की समस्या को गंभीरता से व्यक्त करती है. भारत में भ्रष्टाचार की जड़ें अत्यंत गहरी हैं जिन्हें उखाड़ना बड़ी चुनौती है. अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ द्वारा हाल ही में जारी ‘भ्रष्टाचार बोध सूचकांक’ (ब्च्प्) में भारत छह पायदान खिसककर 180 देशों में 86वें स्थान पर आ गया है जबकि वर्ष 2019 में वह इस सूची में 80वें स्थान पर था. इसका सीधा अर्थ है कि देश में भ्रष्टाचार निरंतर फल फूल रहा है. राजनीतिक संरक्षण में नौकरशाही ने भ्रष्टाचार के नए आयाम स्थापित किए हैं जो गाहे-बगाहे देश में उजागर होते रहते हैं. यहां तक कि विधायिका के साथ-साथ न्यायपालिका भी इसके प्रभाव से अछूती नहीं रही है.


आंकड़ों और तथ्यों से परे हटकर अगर बात की जाए तो यह मुद्दा मनुष्य की लालची वृत्ति और नैतिक संस्कारों से जुड़ा है. भौतिकवादी विचारधारा के चलते हमारी शिक्षा व्यवस्था से नैतिक मूल्य और संस्कार गायब हो चुके हैं. अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए हम दूसरे का गला काटने से परहेज नहीं करते. फिर भ्रष्ट तरीकों से चुनाव जीत कर आने वाले जनप्रतिनिधियों से आप कितनी उम्मीद कर सकते हैं !


राज्य सरकारों ने भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए अलग से विभाग बना रखे हैं लेकिन विडम्बना यह है कि लचर कानून और प्रक्रियागत खामियों के चलते लोगों में इसका रत्ती भर भी भय नहीं है. कई बार तो स्वयं भ्रष्टाचार निरोधक विभाग के अधिकारी ही रिश्वत लेते पकड़े गए हैं. आलम यह है कि भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़े गए अधिकारी और कर्मचारियों को मामले के विचाराधीन रहने के दौरान सरकार पुनः नियुक्ति दे देती है, जिससे रहा सहा भय भी निकल जाता है. जब सत्ता का आधार ही भ्रष्ट तौर तरीकों और जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त पर टिका हो तो वहां उम्मीद करना बेमानी हो जाता है.


8. राजनीति में बढ़ता अपराधीकरण


जब संसद और विधानसभाओं में आपराधिक वृत्ति के लोग जनप्रतिनिधि का चोगा पहनकर पहुंचने लगें, तब समझ लेना चाहिए कि लोकतन्त्र के दुर्दिन शुरू हो चुके हैं. भारतीय लोकतन्त्र में भी अपराधीकरण ग्राफ निरन्तर बढ़ रहा है. पिछले दिनों एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के मुखिया ने तो यहां तक कह दिया था कि उन्हें सिर्फ जिताऊ उम्मीदवार चाहिए भले ही उस पर लाख मुकदमे क्यों ना हों !  


राजनीति में बढ़ता अपराधीकरण देश के समक्ष एक अहम चुनौती है. आज घड़ी संसद और राज्य विधानसभाओं में हमारे कितने ही माननीय हैं जिन पर हत्या, डकैती और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों के अनेक मामले विभिन्न न्यायालयों में विचाराधीन है. सत्ता हासिल करने के लिए कमोबेश सभी राजनीतिक दल ऐसे लोगों को टिकट थमा देते हैं और उसके बाद ये लोग धन और बाहुबल के प्रयोग से चुनाव भी जीत जाते हैं. जरा सोचिए, आपराधिक वृत्ति के ऐेसे खद्दरधारी लोग देश के विकास में कैसी भूमिका निभा रहे हैं ?

 

हालांकि इस चुनौती को निर्वाचन आयोग ने अपने चुनाव सुधारों के तहत नियंत्रित करने का प्रयास किया है लेकिन कड़े कानून के अभाव में आयोग भी खुद को असहाय पाता है. दरअसल, यह दायित्व देश की सर्वोच्च संसद का है जो अपनी पवित्रता बनाए रखने के लिए इस गंभीर मुद्दे पर इतने कठोर कानून बनाए कि सांसद और विधायक के वेश में कोई अपराधी उनकी चौखट न लांघ सके. अपराधियों का ठिकाना संसद नहीं बल्कि जेल होना चाहिए.


9. कैसे खत्म हो नक्सलवाद


देश की आंतरिक सुरक्षा के मामले में सबसे बड़ी चुनौती नक्सलवाद के खात्मे की है. पिछले एक दशक की बात करें तो नक्सली हमलों में हजारों लोगों की मौत हुई है जिनमें ज्यादातर हमारे सुरक्षा बलों के जवान हैं. देश के पांच बड़े राज्यों में पसरी इस समस्या के मूल में सामाजिक और आर्थिक विषमता है जिसके चलते भूखमरी, गरीबी और बेरोजगारी की मार झेल रहे नक्सल प्रभावित इलाकों में सत्ता के विरुद्ध आक्रोश जमा हुआ है.  इस जनाक्रोश ने वहां के युवा दिमाग में माओ की सोच और हाथों में हथियार थमा दिए हैं. आंदोलन लंबा खींचने की वजह से इसके स्वरूप में भी बदलाव आ गया है और आज नक्सलवाद एक राजनीतिक समस्या का रूप धारण कर चुका है.


हालांकि आंकड़ों पर गौर करें तो नक्सली हिंसा में कमी आई है. गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 2008 में 5 राज्यों के 223 जिले नक्सली हिंसा से प्रभावित थे लेकिन बातचीत के प्रयासों से 2017 में यह संख्या घटकर 126 रह गई. वर्तमान में केवल 90 जिले नक्सल प्रभावित बताए गए हैं जो देश के 11 राज्यों में फैले हैं.


इस गंभीर और संवेदनशील मुद्दे पर सरकार को खुले मन से समझना होगा कि हर व्यक्ति सम्मान के साथ रोटी कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाएं पाने का हकदार है. यदि उसे जीवन यापन की आधारभूत सुविधाएं भी ना मिल पाएं वह आक्रोशित होकर हिंसा का रास्ता अपनाने में देर नहीं लगाता. नक्सलवाद के मुद्दे पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ये पंक्तियां जेहन में चुनौती बनकर खड़ी हो जाती हैं -


देश कागज पर बना

नक्शा नहीं होता

कि एक हिस्से के फट जाने पर

बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें

और नदियां, पर्वत, शहर, गांव

वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें

अनमने रहें....


देश में चहुंओर शांति और सौहार्द का वातावरण बना रहे, इसके लिए जरूरी है कि सरकार नक्सलवाद के अंत के लिए सकारात्मक सोच के साथ बातचीत आगे बढ़ाए और पथ भटके हुए नौजवानों को विकास की मुख्य धारा में लाए.


10. धर्म और जातियों में बढ़ता वर्ग संघर्ष


प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज धार्मिक और जातिगत विविधता की खूबसूरती को धारण किए हुए है. यहां का हर समाज छोटी-बड़ी जातियों, उप जातियों में बंटा है जिनकी स्वतंत्र धार्मिक मान्यताएं और अपने-अपने रीति रिवाज हैं. इतनी विविधता के बावजूद भारत पूरी दुनिया में सांप्रदायिक सौहार्द की एक अनूठी मिसाल है. जिसे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी लगातार सहेजने के प्रयास हुए हैं. संविधान में भी इस विविधता की महत्ता को स्वीकारते हुए धर्मनिरपेक्षता को आत्मसात किया गया है. 


लेकिन पिछले कुछ समय से राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस धार्मिक और जातिगत विविधता को कट्टरता में बदलने की कोशिशें की जा रही हैं. देश का आम नागरिक जहां ‘हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, आपस में है भाई-भाई‘ के पुरातन सिद्धांत पर जीना चाहता है वहीं ओछी राजनीति हमारे समाज को जातिगत टुकड़ों में तोड़ने पर उतारू है. हिंदू मुस्लिम विभेद की खाई खोदने वाले स्वार्थी तत्वों ने अब एक कदम आगे बढ़कर जातिगत कार्ड खेलने शुरू कर दिए हैं. स्वर्णो में दलित और दलितों में स्वर्ण चिन्हित करने की कवायद जारी है. ‘हर जाति को अपना हक चाहिए’ के स्लोगन चारों ओर उठने लगे हैं. अधिकारी हो या जनप्रतिनिधि, आज सब अपनी जाति और संप्रदाय को महत्त्व देने लगे हैं जिसके चलते अनायास ही हम जातिगत विखण्डन के मार्ग पर बढ़ चले हैं. जातिगत जनगणना की कवायद भी इसी ओछी राजनीति की सोच है जिसने वर्ग संघर्ष को बढ़ाने का काम किया है. यह गंभीर चिंता का विषय है जो प्रत्यक्ष रूप से देश की एकता और अखंडता को प्रभावित करता है. हम भारतीय होने की बजाय अपनी जातियों और धर्मों के गुटों में बंटते जा रहे हैं, यह भारतीय लोकतन्त्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है. 


11. शिक्षा का गिरता स्तर


आजाद भारत के समक्ष आज जितनी भी समस्याएं विद्यमान हैं उन सब के मूल में कमोबेश शैक्षिक व्यवस्था का अवमूल्यन ही है. एक वक्त था जब भारत भूमि पर नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय स्थापित थे जहां दुनिया भर के जिज्ञासु विद्यार्थी अध्ययन के लिए आते थे. लेकिन विदेशी आक्रमणकारियों और लंबी ब्रिटिश दासता के चलते हम ऐसी गौरवशाली विरासत को संभाल नहीं पाए. रही सही कसर लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धती ने पूरी कर दी.


आज हमारे शैक्षिक संस्थान गुणवत्ता की दृष्टि से वैश्विक संस्थानों के सामने कहीं नहीं ठहरते. शैक्षिक शोध और अनुसंधान के मामलों में हम बहुत पीछे हैं. अधिकांश विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम वर्षों से नहीं बदले गए हैं. इन पाठ्यक्रमों को अद्यतन (नचकंजम) करना तो दूर, गंभीर त्रुटियों तक को नहीं सुधारा गया है. रही सही कसर निजी विश्वविद्यालयों की व्यवसायिक होड़ ने पूरी कर दी है जहां आज पीएच.डी. तक की डिग्रियां बेची जाती है.


प्राथमिक शिक्षा के हालात तो और ज्यादा खराब हैं. जनकल्याणकारी नीतियों की आड में सरकारों ने विद्यालयों में शैक्षिक उन्नयन को गौण कर दिया है. मिड-डे मील और दुग्ध वितरण जैसी योजनाओं ने स्कूलों के शैक्षिक वातावरण को बुरी तरह से प्रभावित किया है. जरा सोचिए, जिस देश की शैक्षिक व्यवस्था से खेल गायब हो चुके हों, वहां हम ओलम्पिक में पदक लाने की बात करते हैं. यह मज़ाक नहीं ंतो और क्या है ! गंभीर बात यह है कि देश की प्रशासनिक व्यवस्था शिक्षक वर्ग को हमेशा स्टेपनी के रूप में इस्तेमाल करती आई है जिससे शिक्षकों में हमेशा नैराश्य का भाव बना रहता है. नैतिक शिक्षा और मानवीय मूल्यों के संस्कार हमारी शिक्षा व्यवस्था से लगभग गायब हो चुके हैं. 


ऐसी विषम परिस्थितियों में नई शिक्षा नीति के माध्यम से देश की शैक्षिक व्यवस्था को पटरी पर लाना बड़ी चुनौती है. यदि हमारे नेतृत्वकर्ता शिक्षा और शिक्षक की महत्ता को समझ पाएं और उसे ध्यान में रखते हुए नीति निर्माण और क्रियान्वयन हो तो इस चुनौती पर पार पाया जा सकता है.


12. महिलाओं के प्रति अपराध का बढ़ता ग्राफ


जिस देश में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते‘, ‘नारी तू नारायणी’ जैसे आदर्श रचे गए हों वहां यदि आजादी के 74 साल बाद भी मातृशक्ति को सुरक्षित वातावरण न मिल सके तो यह शासन व्यवस्था के मुंह पर गहरा तमाचा है. आज भी देश में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों का ग्राफ निरंतर बढ़ रहा है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक, पिछले साल महिला उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और बलात्कार के कुल 4,05,861 मामले दर्ज किए गए हैं जिनमें प्रति दिन औसतन 87 मामले बलात्कार के हैं. यह स्थिति तब है जबकि सामाजिक प्रताड़ना के भय से महिला उत्पीड़न के अधिकांश मामले तो उजागर ही नहीं होते.


हालांकि निर्भया और हाथरस जैसे वीभत्स मामलों के बाद सरकार ने महिला उत्पीड़न के अपराधों से निपटने के लिए कड़े कानून बनाए हैं लेकिन लचर न्याय व्यवस्था के चलते प्रभावशाली अपराधी बच निकलते हैं. दरअसल, महिला सुरक्षा का मुद्दा हमारी सामाजिक मानसिकता से जुड़ा हुआ है जिसमें बदलाव की जरूरत है. सरकारों के साथ-साथ यह हम सबकी सामाजिक जिम्मेदारी है कि देश में मातृशक्ति के लिए सुरक्षित वातावरण का निर्माण करें. समाज में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों का मुखरता से विरोध करें और पीड़िता को न्याय दिलाने में मदद करें. 


13. साइबर क्राइम के बढ़ते खतरे 


पिछले दो दशकों में सूचना प्रौद्योगिकी ने अत्यंत तीव्र गति से विकास किया है. इसके चलते मनुष्य की इंटरनेट पर निर्भरता भी बढ़ी है. आज सोशल नेटवर्किंग, ऑनलाइन शॉपिंग, डेटा स्टोर, गेमिंग, ऑनलाइन स्टडी, ऑनलाइन जॉब आदि गतिविधियां मानव जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी हैं. लेकिन इस विकास के साथ-साथ दुनिया भर में साइबर अपराधों की अवधारणा भी तेजी से विकसित हुई है जबकि उनकी तुलना में हमारे यहां इन अपराधों की रोकथाम के लिए प्रभावी नियंत्रण व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है. 

भारत जैसे विकासशील देश में, जहां सूचना प्रौद्योगिकी की जटिल तकनीक को समझने के लिए समुचित शैक्षिक वातावरण उपलब्ध नहीं है, वहां ऐसे साइबर अपराधों के खतरे अधिक है. आज घड़ी भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार बन चुका है. इसलिए जरूरी है कि साइबर क्राइम की रोकथाम के लिए प्रभावी व्यवस्थाएं विकसित की जाएं.


हालांकि देश में साइबर क्राइम से निपटने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम सन् 2000 से लागू है लेकिन पुलिस और अन्य जांच एजेंसियों के पास ऐसे आपराधिक मामलों में कार्यवाही करने हेतु न तो पर्याप्त संसाधन हैं और न ही तकनीक विशेषज्ञ हैं. आज हैकर्स और सभी वैश्विक आतंकवादी संगठन अत्याधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रहे है, ऐसे में देश की सुरक्षा के लिए जरूरी हो जाता है कि हम भी इस दिशा में अपनी व्यवस्थाओं को आधुनिक रूप देकर मजबूत बनाएं.


14. न्यायपालिका पर बढ़ता मुकदमों का बोझ


आजादी के 74 वर्ष बीतने के बाद भी भारतीय न्याय व्यवस्था की स्थिति सुखद नहीं है. जनसंख्या के अनुपात में न्यायालयों और न्यायाधीशों की कमी के चलते देश में मुकदमों की संख्या निरंतर बढ़ रही है. सर्वोच्च न्यायालय के आंकड़े बताते हैं कि जुलाई, 2020 में देश की जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में 3.33 करोड़ और उच्च न्यायालयों में 41 लाख मुकदमे लंबित हैं.   उच्चतम न्यायालय का कहना है कि ‘आपराधिक अपीलों का लंबे वक्त से लटका होना’ न्याय व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती है. आर्थिक नजरिए से देखें तो मुकदमों में न्यायिक देरी की भारी कीमत चुकानी पड़ती है. कई बार तो न्याय की उम्मीद में बैठे वादी की मौत भी हो जाती है लेकिन न्याय नहीं मिल पाता.


भारतीय न्यायपालिका में इस स्थिति को सुधारने के लिए गंभीरता से प्रयास करने की जरूरत है. देशभर के न्यायालयों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों पर त्वरित भर्ती हो, नए अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना हो, आपराधिक और दीवानी प्रक्रिया संहिता में सामयिक बदलाव हो जिससे मामलों का शीघ्र निस्तारण संभव हो सके. फास्टट्रैक न्यायालयों की तर्ज पर विशेष प्रयोजन से न्यायालय गठन की प्रक्रिया में तेजी लाई जाए तो नई व्यवस्था में सुधार की उम्मीद बनती है.


15. संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता कैसे रहे बरकरार


लोकतांत्रिक व्यवस्था में संवैधानिक संस्थाओं की अपनी महत्ता है जो बिना किसी राजनीतिक दबाव के शासन प्रणाली के सफल संचालन हेतु काम करती हैं. रिजर्व बैंक, निर्वाचन आयोग, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय, सीएजी, सीबीडीटी और संघ लोक सेवा आयोग जैसे संस्थानों को भारतीय संविधान में इसीलिए स्वायत्तता प्रदान की गई है ताकि वे सरकारों की कठपुतली न बन सकें. शासन व्यवस्था में लोकतांत्रिक संतुलन बनाए रखने के लिए किए गए ये प्रावधान संवैधानिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं.


लेकिन अक्सर देखने में आया है कि सरकारें अपने राजनीतिक हित साधने के लिए इन संस्थानों की कार्यप्रणाली को प्रभावित करती हैं. सीबीआई को तो बहुत बार केंद्र सरकार का तोता तक कहा गया है. हाल ही में संपन्न बंगाल विधान सभा चुनावों में राजनीतिक दलों ने निर्वाचन आयोग के क्रियाकलापों पर उंगली उठाई है. आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के तो अनेक मामले हैं जहां स्पष्ट रूप से इन संस्थानों का दुरुपयोग दिखाई देता है.


आजाद भारत के समक्ष इन स्वायत्तशासी संस्थानों की स्वतंत्रता बनाए रखना बड़ी चुनौती है. यदि हमारे जनप्रतिनिधि वाकई राष्ट्रवाद और देशहित की बात करते हैं तो उन्हें इन संस्थानों की स्वतंत्रता के हर मामले पर गंभीरता से बोलना चाहिए. संसदीय नियमावली को इतना सुदृढ़ बनाया जाना चाहिए कि ये संस्थान बेखौफ होकर अपना काम कर सकें. लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सफलता के लिए सरकारों को इन संस्थाओं की स्वायत्तता से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए.


भारत के जनगण में इन चुनौतियों का स्वीकार करने की भरपूर क्षमता है. वह तो अपनी करोड़ों आखांे से समय पटल पर नजरें गड़ाए बैठा है. जिस दिन वह उठ खड़ा हुआ, विश्व मंच पर  भारत का परिदृश्य बदल जाएगा. आइए, स्वतन्त्रता दिवस पर अपने जनगण के उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना करें. 

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत ‘रूंख’



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